देश के नीति निर्धारकों ने सत्ता की चाभी जनता को देने की मंशा से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों का गठन करने का निर्देश दिया था। स्वर्गीय राजीव गांधी ने 1991 में संविधान में 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 लाकर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दे दी। मध्यप्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायती राज को जोर शोर से लागू किया गया। दस सालों तक दिग्विजय सिंह की सरकार पंचायती राज का ढोल पीटती रही। इसमें गली के गुंडों को संवैधानिक पदों पर पहुंचा दिया गया। नतीजा ये निकला कि घनघोर अराजकता फैल गई और कुशासन के चलते कांग्रेस की सरकार को जनता ने घरों से निकलकर सत्ता से बाहर धकिया दिया। संवैधानिक व्यवस्था संभाल रही कार्यपालिका और पंचायती राज व्यवस्था में तीखा टकराव हुआ नतीजन पूरी अफसरशाही ने जनता के आक्रोश का नेतृत्व संभाल लिया। ये आक्रोश इतना अधिक था कि सत्ता में आने के बाद भाजपा की सरकारें तमाम खामियों के बावजूद पंद्रह सालों तक सत्ता में टिकी रहीं। लोग कांग्रेस को सत्ता में नहीं आने देना चाहते थे और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इसे अपनी लोकप्रियता बताकर प्रदेश की अर्थव्यवस्था चौपट करने वाली घोषणाएं करते रहे। लोकप्रियता बटोरने के फार्मूलों पर चलने वाली शिवराज सिंह चौहान सरकार की प्रशासनिक असफलताओं ने एक बार फिर करवट ली और अनमने भाव के बीच कांग्रेस को सत्ता की चाभी मिल गई। इस बार राजीव गांधी नहीं हैं और कांग्रेस अपनी गलतियों को दुहराना नहीं चाहती। इसलिए नगरीय निकाय चुनावों से पहले कमलनाथ सरकार ने जनता से महापौर चुनने का हक छीन लिया है।
राज्यपाल महामहिम लालजी टंडन ने महापौर का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराए जाने संबंधी सरकार के अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। कमलनाथ का अनुमान है कि वे सत्ता के बल का इस्तेमाल करके आसानी से नगर निगमों में अपने पिट्ठू महापौर बिठा लेंगे। सरकार की मंत्रिपरिषद का फैसला है तो राज्यपाल को इसे मंजूरी देनी ही थी। भाजपा इस फैसले से सहमत नहीं है और भाजपा के दिग्गजों ने राज्यपाल से भेंटकर इस अध्यादेश के प्रति अपनी नाराजगी भी जताई थी। इस फैसले के पीछे काम कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने राज्यपाल पर दबाव बनाने के लिए बताते हैं राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा से बयान दिलवाया कि राज्यपाल को विधेयक पास करके अपने संवैधानिक दायित्वों का पालन करना चाहिए। इस सार्वजनिक बयान को लेकर राजभवन की नाराजगी की खबरों के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ स्वयं राज्यपाल महोदय से मिलने पहुंचे और कहा कि विवेक तनखा का बयान उनकी व्यक्तिगत राय है सरकार इससे इत्तेफाक नहीं रखती। एक तरह से सार्वजनिक माफीनामे के बाद राजभवन ने विधेयक को मंजूरी दे दी। जाहिर है कि कांग्रेस अब पंचायती राज जैसी गलती नहीं दुहराना चाहती है और वो चुने हुए जन प्रतिनिधियों के भरोसे बैठे रहने के बजाए अपने पिट्ठू नेताओं के माध्यम से शासन चलाना चाह रही है।
दरअसल पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अब कमलनाथ सरकार में अपनी भूमिका का इस्तेमाल करके गलतियां सुधारने का प्रयास कर रहे है।वे राजनीति से सत्ता को मजबूत करने का फार्मूला तो पहले ही पा चुके हैं। अपने पुत्र जयवर्धन सिंह के माध्यम से वे प्रदेश के नगरीय ढांचे से प्रशासनिक धींगामुश्ती को पूरी तरह समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। जयवर्धन सिंह नगरीय प्रशासन मंत्री हैं और कमलनाथ ने उन्हें वरद हस्त दे रखा है। भारत सरकार ने जबसे गांवों में जन सुविधाओं पहुंचाने के बजाए शहरीकरण की नीति पर जोर देना शुरु किया है तबसे नगरीय निकायों पर कब्जा जमाना सभी राजनीतिक दलों की ख्वाहिश बन चुकी है। भविष्य में नगरीय निकायों पर जिसका कब्जा होगा वही प्रदेश और देश की सत्ता पर काबिज हो सकेगा। कांग्रेस इसीलिए नगरीय निकायों में अपने पिट्ठू महापौर बिठाकर विकास की योजनाओं पर अपना नियंत्रण बनाना चाह रही है।
केन्द्र से आने वाली अधिकतर योजनाओं की भी नोडल एजेंसी नगरीय निकाय होते हैं। इन सभी योजनाओं को मंजूरी के लिए महापौर की सहमति जरूरी होती है। नगरीय निकायों पर कब्जा जमाने की इस रणनीति से ठेकेदारों की पूरी लाबी सहमत है। सत्ता माफिया का रूप ले चुकी ये ताकतें जानती हैं कि यदि लोकतांत्रिक तरीके से नगरीय निकाय चलेंगे और निर्माण कार्यों के टेंडर खुलेआम सार्वजनिक मंच पर खोले जाएंगे तो फिर वे ठेके नहीं पा सकेंगे। यही वजह है कि जब दिग्विजय सिंह भोपाल से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तब यही ठेकेदारों की लाबी उनके समर्थन में भाजपा का साथ छोड़कर समर्थन दे रही थी। यदि जनता ने साध्वी प्रज्ञा को समर्थन देकर चुनाव न जिताया होता तो दिग्विजय सिंह एक सुपर मुख्यमंत्री के तौर पर सार्वजनिक मंच पर अपनी भूमिका निभाते देखे जाने लगते। हार के बाद वे पृष्ठभूमि में सक्रिय हैं और सरकार के फैसलों को प्रभावित कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि सरकार के इस फैसले से अफसरशाही बहुत खुश है। कतिपय आला अफसर सत्ता पर पकड़ बनाती कांग्रेस के फैसलों से नाखुश हैं। उन्हें लगता है कि अभी जनता के फैसलों के नाम पर वे प्रमुख भूमिका निभा लेते थे। अब जबकि सरकार अपने पिट्ठू जनप्रतिनिधियों के माध्यम से फैसले लागू करेगी तब उनकी भूमिका में बड़ी कटौती हो जाएगी। जिस तरह भाजपा शासनकाल में व्यापमं के माध्यम से नौकरियों की भर्तियां कराए जाने से अफसरशाही के हाथों से बड़ा अधिकार छीन लिया गया था उसी तरह नगरीय निकायों पर कब्जा जमाकर कांग्रेस सभी निर्माण कार्यों पर अपनी पकड़ बना लेगी। वैसे सूत्र बताते हैं कि शिवराज सिंह चौहान का व्यापमं से भर्तियां कराने का फैसला भी पृष्ठभूमि में सक्रिय रहकर दिग्विजय सिंह ने ही करवाया था। अपने छोटे भाई लक्ष्मण सिंह और भाजपा के मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा के बीच तालमेल स्थापित करवाकर भर्तियों के अधिकारों का केन्द्रीकरण किया गया था।उसी सलाह का लाभ लेते हुए शिवराज सरकार पर भर्ती घोटाले के आरोप लगाए गए। अब सत्ता में आने के बाद कांग्रेस उस व्यापमं घोटाले का नाम भी नहीं लेना चाहती। कांग्रेस में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की कवायद से उपजी हताशा की वजह से दिग्विजय सिंह सत्ता के केन्द्रीकरण के सबसे बड़े पैरवीकोर बन चुके हैं और कमलनाथ सरकार भी अब सत्ता के केन्द्रीकरण की ओर कदम बढ़ा रही है। नगरीय निकाय चुनावों के संदर्भ में लिया गया फैसला इसकी सबसे बड़ी नजीर बन गया है।
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