सिंधिया को कैसे स्वीकारे ठाकुरों से घिरी भाजपा

ज्योतिरादित्य सिंधियाः राजघराने की पहचान लौटाने का अवसर
रामभुवन सिंह कुशवाह

इसमें तो दो राय नहीं हो सकती कि कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया का शनैः शनैः मोह भंग होता जा रहा है पर वह अभी कितना जमीन पर दिखेगा इसका आज कुछ कहा नहीं जा सकता। यह तो निसंदेह सत्य है कि कोई कितना भी अपने को और दूसरों को अंधेरे में रखे राजशाही के दिन अब लद चुके हैं। स्वतंत्र भारत लोकतन्त्र का सात दशक तक का आनंद ले चुका है और अब जो पीढ़ी देश पर वर्चस्व स्थापित करती जा रही है वह आजाद भारत की है। राजा रानियों के किस्से अब कहानियों में तो अच्छे लगते हैं पर अतीत लौटकर तो नहीं आता।किन्तु जो वर्ग सत्ता और सुविधा में रहा हो वह सहज अपने अधिकार नहीं छोडना चाहता और भारतीय समाज भी मूर्तिपूजक श्रद्धावान रहा है इसलिए नए प्रकार की ‘सामंतशाही’ विकसित होने लगी है। क्योंकि लोकतंत्र ने वह आदर्श और अवसर तो नहीं दिया जिसकी आम जन को उम्मीद थी। सुखद और आशाजनक स्थिति यह भी है कि देश लोकतन्त्र से निराश कतई नहीं हैं क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अभ्युदय इसी व्यबस्था में होना संभव है।

यहाँ मैं जिक्र सिंधिया राजघराने की कर रहा हूँ। उसकी मौजूदा पीढ़ी भारतीय राजनीति में अपेक्षाकृत अच्छा खासा दखल रखती है तो इसके प्रमुख रूप से दो कारण हैं। पहला इस खानदान में दो शख्शियतें ऐसी हुईं जिन्होंने उसे लोकतान्त्रिक बनाये रखा है। । पहली ‘माधो महाराज’ और दूसरी स्वर्गीय राजमाता विजया राजे सिंधिया । माधो महाराज अर्थात माधव राव सिंधिया का आशय वर्तमान पीढ़ी ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया नहीं बल्कि उनके पितामह ( ज्योतिरदित्य सिंधिया के प्रपितामह ) महाराजा माधवराव सिंधिया , जिन्हें तत्कालीन ग्वालियर राज्य की जनता अत्यंत आदर से “ माधौ महाराज ” कहकर पुकारती थी । वे कितने उदार और दूरदर्शी थे यह इसी बात से जाना जा सकता है कि जब उनसे कोई सामान्यजन , किसान ‘अन्नदाता’ कहकर पुकारता था तब वे उसे बुरी तरह डाटते थे और कहा करते थे कि अन्नदाता मैं नहीं, आप लोग किसान हैं जो हमें अन्न देते हैं । दूसरे उन्होंने अपने राज्य में जिस तरह की कानून व्यवस्था की स्थापना की थी वह आदर्श थी। उन्होंने तत्कालीन जमींदारी जागीरदारी व्यवस्था को समन्वयकारी और जन हितैषी बनाया था। उस समय की “ जमींदार हितकारिणी सभा ” जनता के बीच आदर्श और लोकतान्त्रिक ढंग से कार्य करती थी और उसमें आमजन की समस्याएँ बड़ी सदाशयता से सुनी जातीं थीं। आज डॉ. भीमराव अंबेडकर को अनुसूचित वर्ग का संरक्षक और आरक्षण के व्यवस्था का जनक भले ही माना जाता हो परंतु आरक्षण की अवधारणा सबसे पहले इन्हीं माधव राव सिंधिया ने दी थी। जनता के “माधो महाराज” पहले ऐसे शासक थे जिन्होने तत्कालीन जमीदारों और जागीरदारों को सलाह दी थी कि आर्थिक और सामाजिक रूप से दबे कुचले लोगों को नौकरियों में आरक्षण दिया जावे और उनका संरक्षण किया जावे। मैंने स्वयं उस समय की बहुचर्चित पुस्तक “जमींदार हितकारिणी” को पढ़ा है उस पर शोध किया है। आज भी जो लोग इस विषय में शोध करना चाहें तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद उस पुस्तक को पढ़ सकते हैं।

दूसरा व्यक्तित्व था राजमाता विजया राजे सिंधिया जिनका अभ्युदय स्वतंत्र भारत में हुआ । अत्यंत लोकप्रिय, संघर्षशील , अन्याय के विरुद्ध अनूठी योद्धा जिन्होंने तत्कालीन कांग्रेस की तानाशाही को उखाड़ फैका था और इंन्दिरा गांधी के आपातकाल का जमकर विरोध किया । वे इमरजेंसी में मीसा में निरुद्ध रहीं और दो बार उनके पक्ष में स्पष्ट बहुमत होने के बाद भी मुख्यमंत्री पद को ठुकरा कर मध्यप्रदेश में आदर्श और ईमानदार सुशासन देने का प्रयास किया। उन्होंने ही भारतीय जनसंघ , जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को इस काबिल बनाया कि आज वह भारत की एकमात्र पार्टी बन गई है जो कांग्रेस को सत्ताच्युत कर सकी। उस पर देश ने भरोसा भी दिखाया है।

इसके अलावा भी कुछ कारण और भी है कि जिससे ग्वालियर राजघराना और कांग्रेस का सत्तारूढ़ खानदान में लंबे दौर तक राजनीतिक संबंध नहीं बनाए रखे जा सकते। ग्वालियर राज्य के शासक कट्टर हिन्दू विचारधारा के रहे हैं। मुस्लिम और ईसाई उनके स्वाभाविक शत्रु रहे हैं और उनके पुरखों ने लंबे समय तक उनसे युद्ध लड़ते रहे हैं। सिंधिया अंग्रेजों के अधीन अवश्य रहे हैं किन्तु उन्हें कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में भी सिंधिया दोनों पक्षों , अंग्रेज़ शासकों और स्वतन्त्रता सैनानियों में सदैव बैलेन्स करते रहे । इस कारण दोनों में भ्रम की स्थिति भी बनी रही । यह दूसरी बात थी कि सिंधिया ने अंततः अंग्रेजों का साथ दिया और आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को क्रूरतापूर्वक दबाया भी, किन्तु लोग समझते हैं कि यह उनकी मजबूरी थी । तत्कालीन ग्वालियर के महाराजा ने अंग्रेज़ शासकों के अधीन रहते हुये महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ भी संबंध बनाए रखे । उन्होंने अपने क्षेत्र में स्वतन्त्रता सैनानियों को संरक्षण दिया। ग्वालियर राज्य की सीमाएं मध्यप्रान्त (सेंट्रलप्रोविन्स) जहां अंग्रेजों का सीधा शासन था, से मिलतीं थीं इसलिए वहाँ के क्रांतिकारियों और तथाकथित विद्रोहियों को खुला संरक्षण ग्वालियर राज्य में मिलता था। सेंट्रलप्रोविन्स के ‘बागी’ बरदात करके भिंड , दतिया और ग्वालियर के कतिपय ग्रामों में संरक्षण पाते थे और ग्वालियर के बागी उस क्षेत्र में जाकर लूट खसोट करते थे यह तथ्य ऐतिहासिक हैं । लुटेरे पिंडरियों की ग्वालियर से दोस्ती और संरक्षण की खबरें तो लंदन तक पहुँचती रहीं थी। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 के समय सेंट्रलप्रोविन्स का दक्षिणी जिला इटावा के कलेक्टर लॉर्ड ए ओ हयूम थे ( जो बाद में राष्ट्रीय कांग्रेस महासभा के संस्थापक बनें ) जिन्होने ब्रिटिश वाइसराय और इंग्लेन्ड में कंपनी हुकूमत से ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा की शिकायत की थी । बाद में महाराजा को सत्ता से हटाने की ‘धमकी’ दी गई । तब कहीं तत्कालीन महाराजा ने हयूम के साथ एक सप्ताह भिंड में पड़ाव डालकर विद्रोहियों के खिलाफ अभियान चलाने को सहमत हुये। कथित विद्रोहियों उन्हें सहायता देने के आरोप में कई अधिकारियों को नौकरी से हटाया गया। यही नहीं 1857 के आंदोलन के विफल होने के बाद लॉर्ड हयूम के नेतृत्व में रियासत की सेना ने सीमांत गाँव में अत्याचार भी बहुत किए गए ।

यह भी एतिहासिक तथ्य है कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख हीरो तांत्या टोपे के ग्वालियर की सेना में आना जाना था। वे कई दिनों सेना के मराठा अधिकारियों के यहाँ ही रुकते थे और झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर के किले में कब्जा करने से पूर्व कई दिनों मुरार छाबनी में दल बल सहित रुकी रहीं थी। भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद सबसे बड़ी रियासत के महाराजा सिंधिया ने सबसे पहले विलयपत्र पर हस्ताक्षर किए थे और सबसे अधिक खजाना सौंपा था। परिणामस्वरूप उन्हें मध्यभारत प्रांत का राज्यप्रमुख भी बनाया गया था।
ग्वालियर के महाराजा अन्य देशी रियासतों की तरह कुछ समय स्वतंत्र पार्टी के सक्रिय सदस्य भी बनें किन्तु उनकी रुझान हिन्दू महासभा की ओर अधिक थी और ग्वालियर की हिन्दू महासभा उस समय सबसे सशक्त इकाई के रूप में जानी जाती थी जिसके परिणाम स्वरूप पहले चुनाव में कांग्रेस की वांछित सफलता न मिलने पर स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ग्वालियर आए थे और उन्होंने तत्कालीन राज्यप्रमुख महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से उनकी पत्नी महारानी विजयराजे सिंधिया को कांग्रेस के लिए मांगा था। महाराजा की सहमति प्राप्त होने पर महारानी सिंधिया कांग्रेस में शामिल हुईं और कांग्रेस की सांसद बनीं । इसके बाद ग्वालियर क्षेत्र में कांग्रेस के खाते खुलने लगे किन्तु ग्वालियर कोई जनता मूल रूप से हिन्दू महासभाई ही बनी रही जो समय के साथ भारतीय जनसंघ की समर्थक बन गईं।

सन 1956 में सभी रियासतों और राज्यों को मिलाकर मध्यप्रदेश बनाया गया । राजमाता सिंधिया कांग्रेसी संसद होने के नाते उसमें काफी प्रभाव रखतीं थीं किन्तु 1967 में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र और उनके बीच में तब ठन गई। जब मिश्र ने राजमाता से मिलने से मना कर दिया।इसका प्रमुख कारण राजमाता सिंधिया ने बस्तर के महाराजा प्रवीणचंद्र भंजदेव की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या की आलोचना की थी। राजमाता सिंधिया द्वारिका प्रसाद मिश्रा से बुरी तरह नाराज हो गईं और उन्होंने उन्हें हटाने का संकल्प लिया। परिणामस्वरूप प्रदेश और देश में पहली संविद सरकार बनीं । राजमाता चाहती तो मुख्यमंत्री बन सकतीं थीं किन्तु उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बजाय सत्तासूत्र अपने हाथ में रखना ही उचित समझा। फिर 1971 के चुनाव हुये राजमाता सिंधिया ने भारतीय जनसंघ को समर्थन दिया और स्वयं भी जनसंघ के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा और जीत गईं।उस समय 1971 में इन्दिरा गांधी की बेंक राष्ट्रीयकरण और गरीबी हटाओ नारे के कारण देश भर में प्रबल हवा चल रही थी किन्तु मध्यभारत क्षेत्र में सभी सीटें भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी जीते और राजमाता सिंधिया की ख्याति राष्ट्रव्यापी होकर जनसंघ के लिए पूरे देश में दौरा करने लगीं । 1975 में इन्दिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और राजमाता सिंधिया को गिरफ्तार कर लिया गया। मीसा में गिरफ्तार तो उनके पुत्र महाराजा माधवराव सिंधिया भी हुये किन्तु उन्हें पहले दिन ही पेरोल दे दी गई। कहा जाता है कि कांग्रेस की यह ‘घरभेदू’ नीति के कारण माँ और पुत्र में दूरियाँ बढ़ गईं तो महाराजा माधव राव सिंधिया के समर्थक मानते हैं कि महाराजा अपनी माँ की सहमति लेकर ही कांग्रेस में शामिल हुये थे। कुछ भी हो उन दोनों में दूरियाँ बढ़तीं रहीं और माधवराव सिंधिया के पाँव कांग्रेस में जमते रहे। किन्तु इन्दिरा गांधी बहुत चालक थीं उन्होने माधव राव जी को राज्यमंत्री बनाया बाद में वे केंद्र में उन्हें केबिनेटमंत्री बनया गया। इधर राजमाता सिंधिया जनता पार्टी की संस्थापक नेत्री बन कर और फिर भारतीय जनता पार्टी को पूरे देश में सर्वस्वीकार्य बनने में जुटीं रहीं। भारतीय जनता पार्टी ने उनकी सार्वजनिक सेवाओं और संघर्ष को सदैव सम्मान दिया। उनकी पुत्री वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री , उनकी दूसरी पुत्री यशोधरा राजे , भाई ध्यानेन्द्र सिंह ,भाभी श्रीमती माया सिंह मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री बनीं। इसके विपरीत कांग्रेस में माधव राव सिंधिया को वह सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। इसका प्रमुख कारण ग्वालियर रियासत के परंपरागत प्रतिद्वंदी राघौगढ़ के राजा दिग्विजय रहे जो बाद में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

राजशाही का अंत होने के बाद भी माधव राव सिंधिया गुना से जीतते रहे । उन्होंने 1971 में पहली बार जनसंघ के टिकट चुनाव जीता तब वे महज 26 साल के थे। जिसके बाद वे एक भी चुनाव नहीं हारे। वे लगातार नौ बार लोकसभा के सांसद रहे। 1984 में उन्होंने भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से चुनाव हराया। 30 सितंबर, 2001 के दिन माधवराव सिंधिया की एक हवाई हादसे में मृत्यु हो गई । तब उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना से सांसद बनें। इस दर्दनाक हादसे ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की जिंदगी का रुख ही बदल दिया। स्टेनफोर्ड हार्वर्ड से पढ़कर लौटे ज्योतिरादित्य को विरासत के साथ अपने पिता की राजनीतिक विरासत भी संभालनी पड़ी। वे गुना से सांसद भी रहे हैं। इनकी गिनती सबसे युवा सांसदों में भी होती रही है। उनकी शादी नेपाल के राजघराने की की बेटी और उनकी बेटी चित्रांगदा की शादी जम्मू-कश्मीर और जमवाल घराने के युवराज विक्रमादित्य सिंह के साथ हुई। राजमाता सिंधिया और उनकी संतानों में मूल अंतर व्यवहार का है। राजमाता जी सदैव स्वयं को राजकीय गरिमा से बचतीं रहीं हैं वही चाहें माधव राव सिंधिया हों या उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया राजकीय गरिमा ने स्वयं को कभी भी उससे मुक्त होने का प्रयास नहीं किया और उनकी पुत्रियाँ भी लोकप्रिय होने के बाद भी ‘एरोगेन्ट’ के आरोप से कभी भी मुक्त नहीं हो पाईं।

अभी हाल के 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला फिर भी सपा और बसपा की एकतरफा समर्थन देने से सरकार कांग्रेस की बन गई। ग्वालियर क्षेत्र में सबसे अधिक सीटें कांग्रेस को मिलने से मुख्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का बनना तय था किन्तु दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ का साथ दे दिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक मात्र प्रदर्शन करते रह गए।इसके बाद प्रदेश में गुटबाजी चरम पर रही। माधव राव सिंधिया की उपेक्षा इतनी ज्यादा हुई कि उन्हें एक अदद सरकारी मकान भी नहीं दिया गया। वे जो मकान देखते उसी को किसी अन्य नेता के नाम कर दिया जाता। जब लोकसभा चुनाव हुये तो उन्हें षड्यंत्र पूर्वक हरा भी दिया गया। जब राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी लेकर इस्तीफा दिया तो हवा उड़ा दी गई कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया है। सच्चाई ये थी कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना तो दूर उन्हें प्रदेश का अध्यक्ष भी नहीं बनाया गया।

अब बारी ज्योतिरादित्य सिंधिया की थी । उन्होने भी कांग्रेस हाइकामन को राजनीतिक झटका देते हुये अनुच्छेद 370 की कश्मीर से समाप्ति का समर्थन कर दिया। अभी हल में वे ऐसा कोई अवसर नहीं चूकते जिसमें से यह धारणा न बने कि उनका कांग्रेस से मोहभंग हो रहा है। इधर भाजपा ने भी इस भ्रम को बढ़ाने में सहायता की है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने रक्षाबंधन के मौके पर भाई माधवराव को याद किया और एक पुराना फोटो शेयर किया। एक भावुक संदेश में राजे ने लिखा कि उनके जीवन में भाई माधवराव जी की कमी हमेशा खटकती रहेगी।इस बीच 24 अगस्त को पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली की मृत्यु के अवसर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया उनके घर अंतिम दर्शन करने और परिवार को ढाढ़स बंधाने माँ, महारानी , पुत्री और पुत्रवधु के साथ पहुँच गए। जिसके कारण यह धारणा बनती नजर आ रही है कि हो न हो ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में शामिल हो सकते हैं ।

भाजपा और सिंधिया की सम्बन्धों को डोर बहुत पुरानी है। भाजपा भी मानती है कि सिंधिया राजघराने के नेताओं और कांग्रेस के नेताओं में एक मूल अंतर है कि वे कम से कम अन्य कांग्रेसियों कि तरह बेईमान और भ्रष्ट नहीं हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी राहुल गांधी को बहुत निकट से देखा है । उन्हें निश्चित ही लगता होगा कि जो अपनी बहिन के लिए स्वस्थ और अनुकूल विचार नहीं रखता वह उनके लिए क्या और कितना सुविधा जनक होगा ? ज्योतिरादित्य सिंधिया यह भी भलीभांति मानते हैं कि भाजपा नेतृत्व का व्यवहार सदैव ‘सिंधियाज़’ के साथ सदाशयी और अनुकूलता का रहा है।

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