मध्यप्रदेश की राजनीति पर अपना परचम फहराने की खींचतान इन दिनों भोपाल में साफ देखी जा रही है। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी को फतह दिलाने के लिए जिस तरह आनन फानन मे कर्जमाफी की औपचारिकताएं पूरी कीं वहीं वे कई मुद्दों पर अपनी सरकार का बचाव करते नजर आ रहे हैं। लोकसभा चुनावों के माध्यम से पार्टी पर कब्जा जमाने के षड़यंत्र को उन्होंने सफल नहीं होने दिया। उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के अपने वीटो पावर का प्रयोग करके बेगुसराय से सीपीआई के उम्मीदवार कन्हैया कुमार को प्रचार के लिए बुलाने के दिग्विजय सिंह के प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। इससे एक बात साफ हो गई है कांग्रेस दिग्विजय सिंह के साथ तो कम से कम नहीं है।
दरअसल भोपाल सीट पर कांग्रेस के टिकिट से चुनाव लड़ रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जिस अंदाज में अपना प्रचार कर रहे हैं उससे वे खुद को पार्टी हाईकमान से भी ऊपर दिखाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। पत्रकार अमृता राय से बुढ़ापे में शादी रचाने के बाद राघौगढ़ किले में उन्हें पारिवारिक कलह और विरोध का सामना करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने राघौगढ़ सीट से चुनाव लड़ने का फैसला छोड़ दिया और भोपाल की ओर रुख किया था। इसे पार्टी का फैसला बताने के लिए उन्होंने कमलनाथ का सहारा लिया। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जब पत्रकारों से सार्वजनिक तौर पर कहा कि मैं दिग्विजय सिंह से अनुरोध करता हूं कि वे भोपाल से चुनाव लड़ें तो पत्रकारों ने मुख मुद्रा देखकर अनुमान लगाया कि उन्हें राजनीतिक दांव में फंसा दिया गया है। वे अपने चुनाव में जुटे रहेंगे तो प्रदेश की अन्य सीटों का माहौल भी नहीं बिगाड़ पाएंगे। हालिया विधानसभा चुनाव में स्वयं दिग्विजय सिंह ने स्वीकार किया था कि उनकी पार्टी ने उन्हें प्रचार करने से इसलिए रोक दिया है क्योंकि प्रचार करने से पार्टी के वोट कट जाते हैं। भोपाल राजनीतिक मूड के हिसाब से भाजपा का गढ़ माना जाता है। इस लोकसभा सीट पर पिछले तीस सालों से भाजपा का कब्जा है। कांग्रेस के दिग्गजों का भी मानना है कि पिछले विधानसभा चुनावों में इस क्षेत्र में मतदाताओं का जो रुझान पाया गया उसके बीच दिग्विजय सिंह तो ठीक कांग्रेस के किसी भी प्रत्याशी का जीतना भी मुश्किल है।
हालांकि दिग्विजय सिंह ने इसे चुनौती के रूप में इसलिए स्वीकार किया क्योंकि वे अपने जीवन की राजनीतिक पारी खेल चुके हैं। वे अपनी विरासत अपने बेटे जयवर्धन सिंह को भी सौंप चुके हैं। ऐसे में जीत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती बल्कि वे सिर्फ अपनी धूल धूसरित साख को पुनर्जीवित करना चाहते हैं कम से कम इस लक्ष्य में तो वे बहुत हद तक सफल भी हुए हैं। अब वे चुनाव हार भी जाएं तो कम से कम उन्होंने अपनी कुछ जय जयकार तो करवा ही ली।
इस हारी हुई बाजी के पर्दे के पीछे जो लक्ष्य दिग्विजय सिंह का था उसे पाने में वे पूरी तरह सफल रहे हैं। चुनाव की जीत का ख्वाब उनके लिए सिर्फ उपोत्पाद(बाईप्रोडक्ट) है।उन्होंने कमलनाथ सरकार में अपने बेटे को नगरीय प्रशासन मंत्री पहले ही बनवा लिया था। अब वे भोपाल में अपने उस कारोबार का दोहन करना चाह रहे हैं जो उन्होंने शिवराज सिंह चौहान की सरकार में अपने चहेते अफसरों और ठेकेदारों के माध्यम से फैलाया था। ठेकेदारों अफसरों के एक गिरोह के माध्यम से वे मध्यप्रदेश के उन सभी ठेकों में अपनी भागीदारी करते रहे हैं जो जरूरी बजट से पांच गुना पूर्वाकलन(इस्टीमेट) पर दिए जाते रहे हैं। इसमें सड़कों,पुलों, बिजलीघरों, बांध जैसी आधारभूत संरचनाओं का निर्माण प्रमुख रहा है। उन सभी ठेकों में दिग्विजय सिंह अपने चहेते अफसरों के माध्यम से चहेते ठेकेदारों को उपकृत कराते रहे हैं। उन ठेकों में अपने समर्थकों का धन निवेश कराते रहे हैं। इसीलिए उन्होंने भोपाल विजन नाम से एक दस्तावेज भी चुनावी मैदान में फेंका जिससे वे खुद को षड़यंत्रकारी आतंकवादी कहलाए जाने के आरोपों से बचने की जुगत करते दिखने लगे हैं।
जनता ने जब 2003 में दिग्विजय सिंह को अपदस्थ करके उमा भारती को मध्यप्रदेश की कुर्सी सौंपी थी तब ये माना जा रहा था कि दि्ग्विजय सिंह की जेल यात्रा सुनिश्चित है। उस दौरान भाजपा ने श्वेतपत्र जारी किया था और लूटो भागो नाम से एक पुस्तिका भी प्रकाशित की थी जिसमें दिग्विजय सिंह सरकार के लूट भरे वित्तीय प्रबंधन और भ्रष्टाचारों की पोल खोली गई थी। जाहिर था जनादेश दिग्विजय सिंह को जेल भेजने का था। समय की नजाकत भांपकर दिग्विजय सिंह ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को भाजपा में भेजकर खुद को जेल जाने से बचा लिया। उनके माध्यम से शिवराज सिंह सरकार से तालमेल भी बिठा लिया। इसके साथ साथ सरकार की आड़ में चलने वाले कारोबारों में भी घुसपैठ जमा ली।
यह घुसपैठ कुछ इसी तरह थी जैसे अंग्रेजों ने भारत छोड़ते समय सभी मुनाफे के कारोबारों में अपना शेयर डाल दिया था। वे भारत तो छोड़ गए लेकिन इन छद्म बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से सभी मुनाफे के धंधों से चांदी काटते रहे। यही नहीं उन्होंने बैंकों के सरकारीकरण का लाभ उठाते हुए स्थानीय चेहरों के नाम पर भारी कर्ज भी प्राप्त किया और इन छद्म उद्योगपतियों को डिफाल्टर बनाकर उन्हें ब्रिटेन में बसा दिया। भारत से प्रतिभा पलायन के साथ साथ पूंजी का ये पलायन देश को गरीब बनाए रखने की सबसे बड़ी वजह बन गई है। यही वजह है कि इस आमचुनाव में राष्ट्रवाद का मुद्दा पूरी तरह परवान चढ़ा है।मोदी इसी के सहारे स्थानीय नेत्तृव की असफलताओं को लांघकर सीधे मतदाता तक पहुंच गए हैं।इसने दिग्विजय सिंह के षड़यंत्र को भी धूल चटा दी है,क्योंकि मतदाता अब सीधे मोदी के नाम पर मतदान कर रहे हैं।
इस षड़यंत्र के माध्यम से दिग्विजय सिंह ने अपने सभी सहयोगियों को भी भाजपा में एडजस्ट करा लिया था। हालत ये हो गई थी कि भाजपा के लिए रात दिन काम करने वाले कार्यकर्ताओं को तो किनारे कर दिया गया पर उनके चेले चपाटे सरकार पर हावी हो गए। भाजपा संगठन के बीच बार बार ये आवाजें उठती रहीं कि अफसरशाही उनकी बात नहीं सुन रही है पर शिवराज सिंह चौहान ने उन आवाजों को अनसुना कर दिया था. स्थिति यहां तक पहुंच गई कि पंद्रह सालों में जो भाजपा अजेय मानी जाती थी वो छिन् भिन्न हो गई। शिवराज सिंह चौहान की इसी शासनशैली का खमियाजा भाजपा को उठाना पड़ा है और पार्टी के तमाम सहयोग के बावजूद पार्टी जीत की देहरी पर जाकर भी सत्ता से वंचित रह गई।
अब जबकि कांग्रेस राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई है, भले ही उसकी लंगड़ी सरकार अल्पमत की है ऐसे में कमलनाथ अपनी सत्ता खोना नहीं चाहते। दिग्विजय सिंह ने उनसे बगैर पूछे सीपीआई की बैठक में जाकर ये घोषणा कर दी कि कन्हैया कुमार उनका प्रचार करने भोपाल आएंगे। उन्होंने इससे आगे बढ़कर ये भी कह दिया कि वे कन्हैया कुमार के प्रशंसक हैं।ऐसे में कांग्रेस के सभी रणनीतिकार भौंचक्के रह गए। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ ने अचकचाकर दिग्विजय सिंह को बुलाया और कहा कि कन्हैया कुमार को लाकर आप कांग्रेस का जनाजा क्यों निकालना चाहते हैं। हम इसकी अनुमति नहीं देंगे। आप इस फैसले पर फिर विचार करें और कन्हैया कुमार को भोपाल न आने के लिए कहें। तब तक पार्टी के भीतर और विरोधी खेमें में भी विरोध शुरु हो गया था। सोशल मीडिया पर तो कहा जाने लगा था कि कन्हैया कुमार भोपाल से पिटे बगैर नहीं जाएगा। उसे मालूम पड़ जाएगा कि देश टुकड़े टुकड़े गेंग को पसंद नहीं करता।
कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भी दिग्विजय सिंह को सलाह दी कि वे सीपीआई के किसी भी नेता को बुला लें पर कन्हैया कुमार को न बुलाएं। इससे उनकी विरोधी भाजपा जिस राष्ट्रवाद के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है वह आसानी से काग्रेस पर देशद्रोहियों से हाथ मिलाने का आरोप साबित कर देगी। नतीजतन दिग्विजय सिंह को अपना कदम वापस खींचना पड़ा और सीताराम येचुरी की सभा से संतोष करना पड़ा। हालांकि सीताराम येचुरी ने भी भोपाल आकर दूसरा बखेड़ा खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि साध्वी प्रज्ञा कहती हैं कि हिंदू आतंकवादी नहीं होता जबकि भारत का इतिहास लड़ाईयों से भरा पड़ा है। रामायण और महाभारत भी हिंसा के उदाहरणों से भरे हुए हैं। आरोप लगाने के अतिरेक में वे ये भूल गए कि युद्ध और आतंकवाद दो अलग अलग चीजें होती हैं।
जबसे दिग्विजय सिंह के भोपाल से लड़ने की घोषणा हुई है तबसे कई राजनीतिक विश्लेषक कहते रहे हैं कि ये फैसला भोपाल के साथ साथ कांग्रेस के लिए प्रदेश की सभी 29 सीटों के लिए हार की बड़ी वजह बनेगा। ये होता दिख रहा है। साध्वी प्रज्ञा पर आतंकवाद में शामिल होने का आरोप एनआईए कोर्ट में झूठा साबित हो चुका है। ऐसे में दिग्विजय सिंह को एक निरपराध महिला को झूठा फंसाने और भगवा आतंकवाद के नाम पर हिंदुओं को कलंकित करने का आरोप जनता के बीच गंभीरता से लिया जाने लगा है। इससे साफ है कि 23 मई को आने वाले नतीजों में कांग्रेस को जनमत की उपेक्षा करने का खमियाजा चुकाने के लिए तैयार रहना होगा।
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