-आलोक सिंघई-
साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से लोकसभा प्रत्याशी बनाकर भाजपा ने राष्ट्रवाद बनाम परिवारवाद की बहस को तेज कर दिया है। ये बहस आम चुनाव के तीन चरण हो जाने के बाद आकार लेना शुरु हुई है। इस बहस की शुरुआत में जो संशय और सवाल उठ रहे हैं उससे आम मतदाता अभी तक समाधान के दौर तक नहीं पहुंच पाए हैं। आम मतदाता की तो छोड़िए भाजपा के कार्यकर्ता और वरिष्ठ नेता भी इस बहस को लेकर अभी ऊहापोह के बीच झूल रहे हैं। जब प्रत्याशी की घोषणा नहीं हुई थी और कांग्रेस के प्रत्याशी दिग्विजय सिंह ने क्षेत्र में जनसंपर्क शुरु कर दिया था तब भाजपा के नेताओं में खलबली मची हुई थी कि उनका विरोधी दल प्रचार में आगे निकलता जा रहा है। इस बीच भाजपा के कार्यकर्ताओं और टिकिट मांगने वाले नेताओं के बीच भी प्रतिस्पर्धा का माहौल था। हर नेता संपर्क करके खुद को बांका प्रत्याशी घोषित करवाने में जुटा हुआ था। बहुत देर बाद जब साध्वी प्रज्ञा को मैदान में उतारा गया तो टिकिट की दौड़ में जुटे इलाकाई नेतागण मुंह फुलाकर घूमते देखे जाने लगे। हालत ये हो गई कि प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे को इन नेताओं को लामबंद करना भारी पड़ रहा है।
दरअसल पिछले पंद्रह सालों के भाजपा शासनकाल में संगठन की घनघोर उपेक्षा की गई। संगठन में सुविधाभोगी नेताओं का जमघट लग गया। संगठन के प्रभारियों से संपर्क जोड़कर उन्हें बदनाम करने के प्रयास भी जोर शोर से हुए। ये काम वो लोग कर रहे थे जिन्हें तात्कालिक संगठन महामंत्री कप्तान सिंह सोलंकी ने अपदस्थ दिग्विजय सिंह और उनके भाई लक्ष्मण सिंह से तालमेल बिठाकर भाजपा में शामिल करा दिया था। वे सभी पंचायत स्तर तक फैल गए थे। जब शिवराज सिंह चौहान सत्तासीन हुए तो उन्होंने संगठन के उन्हीं पदाधिकारियों से काम लेना शुरु कर दिया। इस दौरान संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाने वाला भाजपा का मूल कैडर नेपथ्य में चला गया। शिवराज जी के कार्यकाल में संगठन के पुनर्गठन का काम भी धीमा पड़ गया। प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के कार्यकाल में संगठन को जिस दयादृष्टि से चलाया गया उसके बीच यही आयातित पदाधिकारी मलाई काटते रहे। आज यदि मुख्यमंत्री कमलनाथ या दिग्विजय सिंह जोर जोर से कह रहे हैं कि मोदी ने अच्छे दिनों का वादा किया था लेकिन अच्छे दिन केवल भाजपा के कार्यकर्ताओं के आए हैं तो वे उन्हीं छद्म भाजपा के नेताओं की बात कर रहे हैं जो इतने लंबे कार्यकाल में जनता के बीच लहीम शहीम जीवन शैली के कारण ईर्ष्या के तौर पर देखे गए। संगठन के मूल कार्यकर्ता तो उपेक्षित ही रहे और उनमें से कुछ ने तो हितग्राही मूलक योजनाओं से खुद को जिंदा रखा और कुछ ने संगठन से किनारा कर लिया।
साध्वी प्रज्ञा ने जब भोपाल पहुंचकर अपने खिलाफ मालेगांव बम धमाके के फर्जी आरोप में खुद को प्रताड़ित किए जाने का मुद्दा उठाया तो जनता के बीच से तो सकारात्मक प्रतिक्रिया आई लेकिन संगठन का अप्रशिक्षित कैडर इसे जनता का मुद्दा नहीं बना पाया। इसके विपरीत साध्वी प्रज्ञा ने अपने खिलाफ प्रताड़ित करने वाले मुंबई एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे का नाम लिया तो कांग्रेस ने इसे शहीद का अपमान करने वाला बयान बताना शुरु कर दिया। इस दौरान भी कैडर के भीतर से प्रताड़ना की कहानी को वांछित हवा नहीं दी गई। कैडर की इस असफलता का नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस महात्मा गांधी की शहादत के समान ही इसे शहीद का अपमान बताने में जुट गई। भाजपा को हस्तक्षेप करके स्वयं को इस मुद्दे से अलग करना पड़ा। उसने ये कहकर पल्ला झाड़ा कि ये साध्वी का निजी अनुभव है हम शहादत का अपमान करने के पक्ष में नहीं हैं। कांग्रेस ने मराठी समाज को भी उकसाकर इस मुद्दे पर साध्वी प्रज्ञा और भाजपा के राष्ट्रवाद की मुखालिफत शुरु कर दी। हालत ये हो गई है कि भाजपा के नेतागण इस मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में आ गए हैं उन्हें लगता है कि साध्वी पज्ञा ने अपनी राजनैतिक अपरिपक्वता के कारण उन्हें झमेले में फंसा दिया है। जिस मुद्दे पर पूरे देश में मतदान का तीसरा चरण स्पष्ट मतविभाजन की स्थिति में आ जाना चाहिए था भाजपा उस जनमत को अपने पक्ष में लामबंद करने में असफल रही है।
वास्तव में प्रज्ञा सिंह तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के नेताओं के षड़यंत्र का शिकार रहीं हैं। तत्कालीन गृह सचिव आर के सिंह ने बेशक इस आदेश का पालन करने के लिए नोटशीट लिखी पर इसे सरकार ने ही पारित किया और मुंबई एटीएस को मामले की छानबीन की जवाबदारी सौंपी। आज जब दिग्विजय सिंह चुनाव मैदान में हैं और उन्हें बीस में से पंद्रह लाख हिंदू मतदाताओं के वोट की दरकार है तब वे खुद को निर्दोष बताने के लिए कह रहे हैं कि उन्होंने भगवा आतंकवाद शब्द नहीं रचा, ये तो आरके सिंह की देन था। हालांकि केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने आरके सिंह का बचाव करते हुए कहा कि वे सचिव थे किसी मुद्दे पर फैसला लेने का अधिकार और दायित्व सरकार का होता है इसलिए भगवा आतंकवाद शब्द को हवा देने का षड़यंत्र दिग्विजय सिंह और सुशील कुमार शिंदे की जोड़ी ने ही किया था।
इस मामले में जो लोग साध्वी प्रज्ञा की प्रताड़ना के बयान को शहादत का अपमान बताने में जुटे हैं वे वास्तव में शहादत की आड़ में परिवारवाद को स्थापित करने की अपनी जानी पहचानी सफल नीति पर अमल कर रहे हैं। बापू महात्मा गांधी की हत्या, श्रीमती इंदिरागांधी की जघन्य हत्या, स्वर्गीय राजीव गांधी की अमानवीय हत्या की आड़ लेकर सफल राजनीति करती रही कांग्रेस को हेमंत करकरे की शहादत के रूप में एक सुरक्षित छतरी मिल गई है। इसके विपरीत भाजपा हेमंत करकरे के कांग्रेस के षड़यंत्र में लिप्तता को नहीं उभार पाई है। मीडिया में भी उनकी बड़ी बेटी जुई करकरे का बयान प्रसारित किया गया जो अमेरिका के बोस्टन में रहती हैं। घटना के वक्त भी वे बोस्टन में ही थीं। पिता की गतिविधियां उन तक परिवारजनों के माध्यम से ही पहुंचती थीं। उनके बेटे आकाश करकरे और छोटी बेटी शायली के बारे में जुई कुछ नहीं बोलना चाहती। इसे वे उनकी निजता बताती हैं। जबकि आकाश करकरे क्या कारोबार करते हैं, उनका कारोबार कब स्थापित हुआ। वे किस देश में कारोबार करते हैं। दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह से उनके क्या कारोबारी संबंध हैं। उसमें पूंजी निवेश किसने और कितना किया था।तब क्या हेमंत करकरे उतना बड़ा निवेश करने की स्थिति में थे या नहीं इन मुद्दों पर भाजपा प्रकाश नहीं डाल पा रही है। ऐसे में वो आरोपों से घिर रही है।
साध्वी प्रज्ञा ने यदि भगवा आतंकवाद पर अपनी प्रताड़ना का जिक्र किया था तो उन्हें इस मुद्दे पर लोगों के मन में उठ रहे सभी सवालों का जवाब देना था। प्रकरण अदालत में होने के कारण वे कई मुद्दों पर चर्चा नहीं कर पा रहीं हैं। इसके बावजूद भाजपा को किसने रोका कि वे साध्वी के निर्दोष होने के बाजवूद उन्हें प्रताड़ित करने के मुद्दे को जनचर्चा न बनाएं। भाजपा के नेतागण शहादत को मुद्दा बनाए जाने के कांग्रेस के ट्रेप में फंस गए हैं। जबकि साध्वी के निर्दोष होने के बावजूद प्रताड़ित किए जाने का मुद्दा हवा नहीं पकड़ सका है।
जिन लोगों ने साध्वी प्रज्ञा के छात्र जीवन को करीब से देखा है। उनका तेजाबी रूप देखा है वे भी साध्वी का पक्ष नहीं रख पा रहे हैं। जब प्रज्ञा सिंह नाम की ये छात्रा किसी पद पर नहीं थी तब उसके न्याय करने का ढंग लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन चुका था। आरएसएस की पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वे लोगों की निगाह में आईँ और उन्हें अपने पाले में खींचने के लिए दिग्विजय सिंह ने कई चरणों के प्रयास किए। जब वे सफल नहीं हुए तो उन्होंने भगवा आतंकवाद की कहानी के ट्रेप में साध्वी को फंसाने का जतन किया। अमानवीय यातना झेलने के बाद भी जब साध्वी प्रज्ञा टूटी नहीं और सत्ता परिवर्तन के बाद बदले माहौल में छानबीन हुई तो उसी एटीएस ने पाया कि साध्वी निर्दोष हैं। इसके बाद ही अदालत ने उन्हें जमानत पर रिहा किया।
अब जबकि अदालत की प्रक्रिया अंतिम दौर में है और भविष्य में साध्वी प्रज्ञा के बेदाग बरी होने की पूरी संभावना है तब भाजपा ने उन्हें मैदान में खड़ा करके राष्ट्रवाद को समझाने का प्रयास किया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कह रहे हैं कि साध्वी प्रज्ञा को झूठे मामले में फंसाकर भगवा आतंकवाद का नाम देकर राष्ट्रवाद को लांछित करने का काम कांग्रेस के नेताओं ने किया है। वे सवाल करते हैं कि समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट करने वाले आरोपी अब कहां हैं। भाजपा यदि शहादत और प्रताड़ना के बीच मौजूद राष्ट्रवाद के तत्व को समझाने में सफल होती है तो आगे आने वाले चरणों के मतदान में उसे अवश्य लाभ होगा। सबसे बड़ी बात तो ये है कि केवल राष्ट्रवाद को कुचलने के लिए परिवारवाद की ध्वजावाहक कांग्रेस ने कैसे कैसे षड़यंत्र किये ये भी स्थापित करना संभव हो सकता है। ये आम चुनाव इस तरह देश में एक क्रांतिकारी बदलाव के मोड़ पर खड़ा है। जनमत के आधार पर राष्ट्रवाद और परिवारवाद के बीच जीत हार का फैसला भी 23 मई को होना तय है।
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