गांव को बाजार की गुलामी से कैसे मिले आजादी

लेखक : प्रभाकर केलकर ,भारतीय किसान संघ

पिछले महीनो में देश के अनेक राज्यों में किसानों द्वारा अपनी मांगो को लेकर विधानसभा एवं संसद घेराव के मार्च का सिलसिला तेज हुआ है। किसान संगठनो की अलग अलग सभाऐं हो रही है। जिनमें अनेक राजनैतिक दलों के झण्डे एवं नेता भी शामिल होतें है और उत्तेजक भाषणों के साथ ये कार्यक्रम किसी अगली योजना के एलान के साथ समाप्त होते हैं… हर सभाओ में प्रमुख मुद्दे 1.कर्जमाफी 2. पेंशन 3. लाभकारी मूल्य 4.न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) होते हैं ,लेकिन समाधान की पहल नज़र नहीं आती है।

विगत 30 वर्षो में अनेक सरकारें बनी अनेक योजनाए भी सामने आयी , पूरे देश में किसानों के नाम पर लगभग 3 लाख करोड़ की कर्जमाफी भी हुई लेकिन इन उपायों के वाबजूद किसानों की समस्याऐं समाप्त नही हुई । ये एक कटु सत्य है।

उपरोक्त समस्याओं के उपाय पर विचार करने से पहले इसका विशलेषण करने का प्रयास करेगें कि देश के संचालन में कौन सी विचारधारा काम करती है। इसके लिये हमें देश व दुनिया में चलने वाली विचारधाराओं पर भी विचार करना होगा।

सामान्यतः तीन प्रकार की विचारधाराऐं दिखाई पड़ती है-

1. साम्यवादी विचारधारा

2. पूंजीवादी विचारधारा

3. भारत की स्वावलम्बी आत्मनिर्भर समाज की विचारधारा।

1.साम्यवादी विचारधारा- सबसे पहलें साम्यवादी विचारधारा पर विचार करते है, साम्यवादी विचारधारा के अनुसार ‘‘सर्वहारा की विजय एवं शासन’’ का नारा दिया जाता है। लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं दिखाई देता। अन्त में वहां पर पोलित ब्यूरो एवं एक पार्टी (साम्यवादी विचारधाराओं वाली) का शासन हो जाता है। जिसका उदाहरण चीन एवं रूस आदि देश है।

समाज को सुखी करने के नाम पर वे किसान , मजदूरों एवं समाज को सरकारी संसाधनों का बांटना एक उपाय मानते है जैसे -कर्जमाफी, पेंशन योजना आदि। इसका परिणाम यह होता है कि समाज या जनता सरकार पर निर्भर होती चली जाती है। वे चाहते भी यहीं हैं कि कोई व्यक्ति स्वतन्त्र विचार करके उनके किसी कार्य में हस्तक्षेप न करे। यदि कोई समूह स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का प्रयत्न करता है तो उसे गोलियों से भून दिया जाता है ,जिसका जवलन्त उदाहरण चीन में 70 के दशक में हजारों छात्रों एवं युवाओं को मौत के घाट उतरा गया । रूस में तो ऐसे सेकड़ो उदाहरण है और इसलिये ऊपर से देश शक्तिशाली व अन्दर से वही देश खोखला दिखाई देता है। जनता को स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति के किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं होते हैं।

2. पूंजीवादी विचारधारा – यह व्यवस्था धीरे-धीरे बडे उद्योगपतियों व पॅूजीपतियों द्वारा लोकतान्त्रिक सत्ता का नियन्त्रण करती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अमेरिका के साथ-साथ अन्य लोकतांत्रिक देश भी है। अमेरिका के राष्ट्रपति पूॅजीपतियों के इशारों पर चलने के लिये मजबूर हो जाती है। भारत में जब मानसेन्टों बीज कम्पनी को अतिरिक्त दाम घटानें के लिये बाध्य किया और अनेक प्रतिबन्ध लगाये तब मानसेन्टों बीज कम्पनी के द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति को कहने पर उन्होनें भारत पर दबाव बनाकर उन प्रतिबन्धों को तत्काल हटाने के लिये मजबूर किया।यह घटना 2017 मे घटित हुई थी।

पूंजीवाद का बोध वाक्य है ‘‘सर्वश्रेष्ठ की विजय’’ जिसका अर्थ है जो सबसे ताकतवर है उसका सभी संसाधनों पर अधिकार होगा। आज अमेरिका एवं अन्य अति विकसित देश इसी विचारधारा पर चलते दिखाई दे रहे है इन देशों द्वारा संसार के लगभग 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग किया जाता है और प्रकृति का अति शोषण होता है ये देश अपनी ऐशोआराम की जिन्दगीं जीने के लिये एवं सुख सुविधाओं के लिये कार्बन एवं अन्य गैंसो का अतिशय उत्सर्जन करते हैं जिससे पूरी पृथ्वी का प्रदूषण खराब हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में पिछड़े देशों का शोषण होता है। पूंजीवादी देशों में असहाय, निर्धन व दिव्यांग जनता नारकीय जीवन जीने के लिये बाध्य होती है।

3.भारतीय प्राचीन अर्थव्यवस्था- 1. जिसके अनुसार एक व्यक्ति कमायेगा , पूरे परिवार को खिलायेगा।

2.पूंजीपतियों के लिये न्यासी सिद्धांत 3. शासन के लिये धर्म आधारित शासन चलाने की अनिवार्यता।

1. एक व्यक्ति कमायेगा व दस को खिलायेगा का अर्थ है कि परिवार का मुखिया मेहनत करके कमायेगा व परिवार का पालन-पोषण करेगा।

2. न्यासी सिद्धांत का अर्थ है पूंजीपति व्यापारी आदि परिवार खर्च के अलावा बचे हुए धन के समाज हित के लिये संरक्षक न्यासी होगें। जिसके उदाहरण है- सेठ , व्यापारी आदि के द्वारा पूरे देश में धर्मशालाऐ, तीर्थ क्षेत्रों का निर्माण व अन्न क्षेत्रों का संचालन आदि किया जाना हैं और हम देखते है कि यह अनादि काल से चला आ रहा है। पूरे विश्व में केवल भारत के अन्दर ही यह अनुठी व्यवस्था है , दुनिया में किसी भी देश में धर्मशाला बनाने का विचार नहीं है ।

3.शासन/राज्य-राजा राज व्यवस्था, लोकतांत्रिक या गणराज्य मे धर्म यानि कानून के निर्देशों के अनुसार चलाते थें व हैं तथा ये तीनों मिलकर आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी समाज का निर्माण करते है। जो वह समाज सरकार पर निर्भर नही होता है। जिससे समाज में स्वतन्त्र विचार पनपनें के लिए योग्य वातावरण बना रहता है। उपरोक्त विचारों की छाया मे वर्तमान किसान व मजदूरों को देखे तो सरकारे , संसाधनों को बांटकर इन वर्गो को परावलम्बी व पंगू बना रही हैं।

किसानो को आत्मनिर्भर बनाने के लिये हमारी निम्न उपाय हो सकते हैः-

1.उधोगपति-पूंजीपति , व्यापारि आदि अपने बचे हुए धन का समाज को सामथ्र्यवान बनाने के लिए उपयोग करें। जैसे कमाई के साधन देकर आत्मनिर्भर बनाऐ उदाहरण के लिए- सिलाई मशीन चलाने की ट्रेनिंग देकर उन्हें मशीन प्रदान करना आदि।

2.सरकारे कर्जमाफी व पेंशन आदि के स्थान पर किसानों को प्रति एकड़ प्रति वर्ष निश्चित प्रोत्साहन राशि प्रदान करे।

3.अनाज खरीदी के साथ प्रति क्विंटल प्रोत्साहन राशि दें व फसल बीमा के स्थान पर किसान सुरक्षा कोष बनाएं जिसमें से किसानों की फसल हानी होने पर उन्हें तत्काल सहायता प्रदान की जा सके।इस कोष में पेसों की स्थाई व्यवस्था के लिए इस कोष को देश की कृषि उपज मंण्डियों से जोड़ देना चाहिए।

4.किसानों से कौनसी फसल बोना है, खरीदी की गैरेन्टी के साथ सरकारें अनुबन्ध कर सकती हैं।

विगत अनेक वर्षो से कृषि वैज्ञानिकों द्वारा अनाज की आत्मनिर्भरता को लेकर देश के पूरे फसल चक्र में परिवर्तन कर दिया गया हैं, ‘‘इसके अन्तर्गत बहु फसली खेती के स्थान पर एक फसली खेती को प्रोत्साहन दिया गया हैं’’। यह प्रणाली किसानों के लिए हानिकारक बन गई हैं। पहले के समय में किसान बारह महिनों में लगभग 24 फसलें लेता था, इस कारण उसके घर मे सर्वदा कुछ ना कुछ अनाज बना रहता था। आज अनेक राज्यों में बरसाती मौसम में केवल सोयाबीन पैदा करते हैं जिसे खाया नही जा सकता हैं।

कुछ विद्वान लोग किसानों को सोने का भाव, कर्मचारियों के वेतन एवं किसानों की आय की तुलना करते हैं, जबकि कर्मचारी केवल तीन प्रतिशत हैं और सोना बहुत कम लोग खरीद कर रख पाते हैं जैसे- एक कृषि उपज मंण्डी में एक सौ व्यापारी होते हैं और दस हजार किसान वहां अनाज बेचते हैं। स्वाभाविक रूप से व्यापारियों की आय किसानों से अधिक रहेगी और दोनों की तुलना करना उचित नहीं होगा।

यहां उल्लेखनीय है कि किसानों को भी रासायनिक खाद, रासायनिक दवाई, पेस्टीसाईड, उन्नत बीज, कृषि यन्त्र आदि के लिए बाजारों पर निर्भर रहना पड़ता हैं, जिससे किसानों की खेती की लागत अत्यधिक मात्रा में बढ़ गई हैं। बाजारों पर निर्भर रहकर किसान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकती हैं और ग्रामीण भारत हमेशा गरीबी या आर्थिक तंगी में फॅसा रहेगा। कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे रासायनिकों के उपयोग के स्थान पर किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करें। किसानों को चाहिए कि वे गाय आधारित जैविक खेती एवं पशुपालन के साथ खेती करें। ग्रामीण भारत में जब तक कुटिर एवं लघु उद्योगों को पुनः प्रारम्भ नहीं किया जायेगा तब तक ग्रामीण भारत आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी भारत का चित्र नहीं बन सकता हैं।

“जिस देश का समाज रोजगार के लिए सरकार, उद्योग एवं व्यापारियों पर निर्भर रहता है वह गुलामी की राह चलता हैं। जो समाज स्वरोजगार युक्त स्वाभिमान सम्पन्न जीवन जीता है वह निरन्तर सम्पन्नता में आगे बढ़ता जाता हैं’’ और दुनिया में उसकी साख बढ़ती जाती हैं। वर्तमान में हमारे देश मे ठीक इसका उल्टा होता हुआ दिखाई देता है। 1947 से पूर्व देश गुलाम था ,गाँव आत्मनिर्भर थे। वर्तमान में देश स्वतंत्र है लेकिन गाँव गुलाम हो गया है वह पूरी तरह बाज़ार पर निर्भर हो गया है। इस निर्भरता को कम करने से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार संभव है।

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