देश का किसान संकट में है क्योंकि किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और अब तो कर्ज के दबाव में इहलीला स्वत: समाप्त कर कर्ज से मुक्ति लेना चाहता है। सरकार किसी दल की हो, बार बार कर्ज माफी का ढोंगकरतथा कथित बुद्धिजीवियों की नजरों में उसे कामचोर बना देती है। हाल के वर्षो की याद करें तो 2009 में पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने ढोल पीटकर किसान को कर्ज माफी घोषित की। महाराष्ट्र का विदर्भ अंचल लगातार सूखा की चपेट में था और केन्द्र सरकार ने किसानों के घावों पर मरहम लगाने का काम तो किया लेकिन हकीकत इस बात से मेल नहीं खाती कि डॉ. मनमोहन सिंह सरकार की इस राजनीतिक उदारता से किसानों को कोई लाभ पहुंचा। रोग बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।
हाल में उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब ने भी कर्ज माफी की घोषणा की और अमल भी हो रहा है। इसके बाद कर्नाटक सरकार ने कर्ज माफी का कदम उठाया है। लेकिन कर्ज के दबाव में मौत का सिलसिला थमा नहीं है। इससे लगता है कि सरकारें इस मर्म को समझ नहीं पा रही है कि किसान की आवश्यकता आर्थिक सशक्तिकरण के उपाय किए जाने की है और यह तभी संभव है जब किसान के कृषि उत्पाद की कीमत इस प्रकार निर्धारित हो कि किसान का सशक्तिकरण हो। कृषि की बढ़ती लागत और कृषि उत्पाद के फिसलते मूल्यों ने किसान को संकट में डाला है। उसके खर्च काटकर उसे दो पैसे मिलने से आगामी फसल में निवेश के लिए किसान की बरकत होगी। इससे किसान की क्षमता बढ़ेगी, उसे दूसरों के सामने हाथ पसारने की नौबत नहीं आयेगी। कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन ने वर्षों पहले यही सुझाव दिया था।
मध्यप्रदेश सरकार ने इस दिशा में कुछ ठोस पहल आरंभ की है। फलस्वरूप प्रदेश में कृषि उत्पाद मूल्य और कृषि उत्पाद विपणन आयोग बनाया जा रहा है। उद्देश्य सही दिशा में सोच प्रदर्शित करता है। इसके नतीजों पर कहना जल्दबाजी होगी लेकिन आयोग का गठन सामयिक और प्रासंगिक है, इसमें शायद ही दो राय हो। इसके अलावा खेती के लिए कर्ज जीरो प्रतिशत ब्याज पर दिया जा रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने फसलों के समर्थन मूल्य की गारंटी दी है। यहां तक कि मानसून के संकेत मिलने के बाद भी प्याज, दलहन की खरीद जारी रखी है।
आज के परिप्रेक्ष्य में सोचें तो आजादी के संघर्ष के दौरान किसान की समस्याओं को लेकर संग्राम शुरू हुआ। आजादी के संघर्ष का किसान ध्वजवाहक बना। चंपारन और वारदोली आंदोलन ने देश की जनता को स्वाधीनता के प्रति जागरूक किया लेकिन जो दल आज किसानपरस्ती के ढोंग में कर्ज माफी की बात करते हैं, उन्होंने किसानों के सशक्तिकरण आंदोलन के समर्थन से मुंह मोड़ लिया था। उन्होंने जमीदारों का साथ दिया। अबबत्ता किसान के संघर्ष का विरोध नहीं किया क्योंकि किसानों का वोट बैंक उनकी ओर झुक चुका था। किसानों की लड़ाई में कंधा लगाने वाले जेपी, लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, नरेन्द्र देव, अशोक मेहता, किशोरी प्रसन्न सिंह, गंगाशरण सिंह, पं. रामनंदन मिश्र जैसे समाजवादी नेता शामिल रहे।
इन्होंने संचार माध्यमों के जरिए खूब समर्थन दिया। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने तो किसानों के समर्थन में संदेश दिया लेकिन सच्चाई यह है कि किसानों की बदकिस्मती थी कि तब राजनेताओं के सामने सवाल था कि वे किसान और जागीदार, जमीदार के बीच एक का चुनाव करें ? किसे समर्थन दिया जाए? कांग्रेस की प्राथमिकता सूची से किसान बाहर हो गया। किसान की नाराजगी के डर से कांग्रेस ने किसान का विरोध नहीं किया लेकिन समर्थन से पीछे हट गयी। आजादी के बाद भी किसानों का संघर्ष जारी रहा लेकिन छितरा छितरा रहा। इसका नेतृत्व चौधरी चरण सिंह और देवीलाल ने संभाला। शरद जोशी और शरद पवार ने भी किसानों का साथ दिया। महेन्द्र सिह टिकैत भी जुझारू नेता हुए लेकिन उनकी आवाज दिल्ली के इर्द गिर्द सुनी गयी।
किसानों के समर्थन में आज कुछ नेता सामने आए हैं लेकिन उनकी मौजूदगी परिस्थितिजन्य है। किसानों की आवाज बुलंद करने में दुर्भाग्य से ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी आवाज में वजन हो और देशव्यापी स्वीकार्यता हो। इसलिए तात्कालिक लाभ के लिए राजनेता कर्ज माफी की बात उठाकर मानों किसान के लिए राजनीतिक नजराना दिलाना चाहते है क्योंकि सरकारों ने बार-बार कर्ज माफी का ढिंढोरा पीटा लेकिन किसान कर्ज माफी के बावजूद कर्ज से मुक्ति नहीं पा सका। इसका कारण खोजने की आज जितनी प्रासंगिकता है, उतनी कभी नहीं रही। किसान खेती की लागत बढऩे से परेशान है, उपर से उसे फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल पा रहा है। न तो खाद्य प्रसंस्करण किसानों का उद्योग बन पाया है और न उसे आर्थिक सशक्तिकरण के लिए माली खुराक के बारे में सोचा गया है। फसल आने पर मूल्य गिरना फितरत बन चुकी है क्योंकि किसान भंडारण सुविधा के अभाव में तत्काल माल बेचता है। भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की सुविधा आवश्यक है। अपमानजनक है कि किसान को मिलने वाली कर्ज माफी ने समाज में किसान की प्रतिष्ठा कम की है। किसान को कामचोर तक कहा गया है। लेकिन इस बात पर गौर नहीं किया गया कि इस कर्ज ग्रस्तता की जड़ कहां है।
किसान का दुर्भाग्य तो आजादी के बाद ही शुरू हो गया जब सरकारों की नजरों में उद्योग तो चढ़ गया और कृषि दोयम दर्जे की हो गयी। किसान न्यूनतम सुविधाओं पर अपने सांस्कृतिक परंपरागत कृत्य से जूझता रहा। किसान को अन्नदाता कहकर उसका भावनात्मक शोषण किया गया। एक तरफ खेती घाटे का व्यवसाय बनती गयी दूसरी तरफ सरकार को कृषि उपज का मूल्य बढ़ न जाए, यह चिंता बनी रही। किसान सरकार की नजरों में गौण हो गया। किसान पूरी तरह प्रकृति के सहारे हो गया। अतिवृष्टि, सूखा, ओला जैसे संकट आते गए। सरकारों ने संकट की जड़ तक जाने के बजाए थोड़ी बहुत राहत देकर किसानपरस्ती की भरपूर सियासत कर उसे वोट बैंक समझ लिया। न तो किसान को अपनी फसल का मूल्य पाने का अधिकार मिला और न किसान की गिरती माली सेहत के प्रति सरकार ने गौर किया। ऐसे में दुबला और दो अषाड़ की कहावत तो तब सिद्ध हुई जब 1966-67 में हरित क्रांति का झंडा बुलंद हुआ।
सरकार ने कृषि उत्पादन में इजाफा करने के लिए आह्वान किया लेकिन किसानी की बढ़ती लागत पर कतई गौर नहीं किया। कृषि से जुड़ा व्यापार खाद बीज पौध संरक्षण का कारोबार मल्टीनेशनल्स के हाथ में बंधक बन गया।इनका पूरा ध्यान वार्षिक लाभ कमाने पर केन्द्रित हो गया। किसान इस कारोबार की भूल भूलैया में ऐसा फंसा कि किसान के उसके कर्ज का घोड़ा बेलगाम हो गया। सहकारिता आंदोलन ने इसका जिक्र किया। नेताओं ने फ्रिक की, लेकिन राहत कहीं नजर नहीं आयी। किसानों पर कर्ज का बोझ, कार्पोरेट का मुनाफा बढ़ा। कार्पोरेट को सरकार ने सुविधा दी। उनका कर्ज भी माफ हुआ लेकिन किसान ने उत्पाद की मूल्य वृद्धि सरकार के राडार पर नहीं आयी। किसानी के अर्थशास्त्र को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने समझा। किसानों के समर्थन में आंदोलन, लेव्ही विरोध जैसे अभियान चले। लेकिन सही उपचार का समय बहुत विलंब से आया। देश में राजनीतिक परिवर्तन से किसान के अनुकूल हवा के झौंके महसूस किए जा रहे हैं।
किसान की समस्या की असल जड़ की ओर नरेन्द्र मोदी सरकार की निगाह गयी है। प्रधानमंत्री फसल बीमा, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, राष्ट्रीय गोकुल योजना, नीली क्रांति मूल्य स्थिरीकरण योजना, बाजार हस्तक्षेप योजना, ई विपणन मंच, कृषि उपज मंडियों को जोडऩे का काम शुरू हुआ है। किसानों को कर्ज सुविधा आसान और सस्ती हुई है। ब्याज 18 से चार प्रतिशत और बाद में मध्यप्रदेश में जीरो प्रतिशत हुआ है। किसान को जमीन का स्वाइल हेल्थकार्ड देकर लागत घटाने का उपक्रम आरंभ हुआ। वास्तव में आवश्यकता किसान को फसल का उचित मूल्य दिलाने, किसानी की लागत कम करने की है। इसी बीच मध्यप्रदेश सरकार ने कृषि उत्पाद मूल्य और विपणन आयोग के गठन का जतन किया है। समय बतायेगा कि किसानों को माफिक दवा मिलने से कर्ज मुक्ति का मार्ग स्वयं खुलेगा। किसानों को दरकार कर्ज मुक्ति की ही है, कर्ज माफी की नहीं। नरेन्द्र मोदी सरकार का 2022 तक किसान की आय दोगुना करने का संकल्प और तानाबाना भी कसौटी पर होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कठिन डगर पर मोदी सरकार ने कदम बढ़ाया है। नीति सही है। दिशा भी सही है।
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