
-आलोक सिंघई-
मध्यप्रदेश में पुलिस की गोली से किसानों के नरसंहार का कलंक भाजपा सरकार के माथे लगा है। इसे धोने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उपवास पर बैठने जा रहे हैं। उनके सलाहकारों ने समझाया है कि किसी भी जनांदोलन पर नियंत्रण पाने के लिए आपको गांधीवादी तरीका ही अपनाना होगा। गांधी जी के उपवास में बड़ी ताकत रही है। आजादी के संग्राम को नियंत्रित करने के लिए गांधीजी ने वही तरीका अपनाया था इसलिए भड़के हुए किसानों का दिल जीतने के लिए आपको भी उपवास पर बैठ जाना चाहिए। प्रदेश में मौजूदा किसान आंदोलन शिवराज जी के धूर्त सलाहकारों की चालबाजियों के कारण ही भड़का है। इससे निपटने के लिए वे एक और प्रहसन दुहराने जा रहे हैं। गांधीजी जब ये प्रहसन खेलते थे तब देश गुलाम था और आजादी देश के लोगों का सपना था। आज सत्तर सालों तक देश की आजादी का उत्सव मनाने के बाद जनमन का ये विश्वास जम चुका है कि वे आजाद मुल्क के वासी हैं। जाहिर है अब उनकी प्राथमिकताएं बदल गईं हैं। आजादी का अहसास देश के लोगों में भरने के लिए बाद की सरकारों ने बेलगाम छूटें दीं। जिसका लाभ चतुर लोगों ने तो उठाया पर खेतिहर मजदूर और किसान इससे वंचित रहे।
शिवराज सिंह चौहान के शासनकाल में किसानों के हित की ढेरों योजनाएं चलाई गईं। खेती को मुनाफे के धंधे में बदलने का उनका अभियान कई सोपान पार कर चुका है। किसानों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ चुकी हैं ।इसलिए किसानों को भड़काना भी सरल हो गया है। मौजूदा आंदोलन इन्हीं किसानों की आड़ लेकर भड़काया जा रहा है। इसके पीछे कौन है यह यक्ष प्रश्न सभी के दिमाग को मथ रहा है।शिवराज जी कह रहे हैं कि इसके पीछे कांग्रेस के गुंडे हैं। राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष पं. शिवकुमार शर्मा कह रहे हैं कि उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए साजिशन हिंसा कराई जा रही है। लोग कह रहे हैं कि जींस टीशर्ट पहिनकर गुंडों ने सार्वजनिक संपत्तियों को नुक्सान पहुंचाया है। उनके ही कारण आम नागरिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। मगर ये सभी बातें केवल अर्धसत्य हैं। इसका आधा सच खेती की ठेका पद्धति में छुपा हुआ है।
कुछ सालों पहले भारत में ठेका पद्धति पर खेती करने का असफल प्रयोग किया गया था। बाद में कारगिल, ई चौपाल जैसी जिन कंपनियों ने बाजार में पूंजीकरण किया उन्होंने अपना कारोबार सीमित कर लिया। इसकी वजह थी कि उन्हें सब्सिडी पर आधारित कृषि व्यवसाय का सामना करना पड़ रहा था। अब स्थितियां बदल गईं हैं। ठेका खेती में पैसा लगाने के लिए भी कई कंपनियां सार्वजनिक धन का ही उपयोग करने की तैयारी कर रहीं हैं। रिलायंस जैसी कंपनी ने प्रदेश के कई सहकारी बैंकों को गोद लेने की लाबिंग शुरु कर दी है। कुछ सहकारी बैंकों के बोर्ड में तो कथित तौर पर उनके समर्थित किसानों का बहुमत हो चुका है। अब वे सरकार पर दबाव बना रहीं हैं कि इन बैंकों के पूंजीकरण के लिए उन्हें विश्व बैंक, एडीबी जैसे अंतर्राष्ट्रीय सूदखोरों से पैसा लेने की छूट दें। इसके लिए गारंटी सरकार को देनी है। यदि सरकार गारंटी देती है तो वे कंपनियां किसानों के नाम पर ये रकम आसानी से निकाल सकेंगे और अधिक मुनाफे वाले कारोबारों में लगा सकेंगे। इसके साथ साथ डूबने वाली रकम चुकाने की जवाबदारी सरकार की होगी।
इन कंपनियों की अगुआई रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी कर रही है। उसके मोबाईल जियो ने जिस तरह बाजार पर कब्जा जमाया है उससे अन्य कंपनियों के कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। अपने कारोबार के विस्तार के लिए रिलायंस शुरु से सरकार पर दबाव बनाता रहा है। जियो के टावर पुलिस थानों की जमीनों पर फोकट में लगाने के षड़यंत्र से इसी शुरुआत हुई थी। जब इस मामले को अदालतों में घसीटा जाने लगा तो कंपनी ने नाम मात्र का किराया देकर अपना कारोबार बढ़ा लिया। अब इसी तरह का हस्तक्षेप वह कृषि में करने जा रहा है।
भूमि सुधारों के नाम पर किए जा रहे डिजिटलाईजेशन ने भी किसानों की जमीनों पर कब्जा जमाना शुरु कर दिया है। खेती को ठेके पर लेने वाली कंपनियां किसानों की जमीनें हड़पने की तैयारी कर रहीं हैं।इन जमीनों पर खेती करने से उन्हें किसानों के मंहगा किराया नहीं देना पड़ेगा। खेती को उद्योग का दर्जा दिए जाने की तैयारी ने उनका उत्साह बढ़ा दिया है। इसलिए यही कंपनियां सरकार पर दबाव बना रहीं हैं कि किसान की फसलों का मूल्य बढ़ाया जाए। अब तक सब्सिडी पर चलने वाले कृषि व्यवसाय के कारण खाद्यान्नों का मूल्य नियंत्रण में रहा है। बाजार की ताकतें अब चाहती हैं कि उन्हें खेती पर तो सब्सिडी मिले पर उनके उत्पाद को नियंत्रण के दबाव से मुक्त कर दिया जाए।इससे वे मनमानी कीमतों को अपना लागत मूल्य ज्यादा बताकर बढ़ा सकेंगी।
इस अर्थ शास्त्र को समझे बगैर मौजूदा किसान आंदोलन की दशा और दिशा नहीं समझी जा सकती है। बेशक देश और प्रदेश का किसान नाराज है। न केवल किसान बल्कि व्यापारी, कर्मचारी और सभी तबकों के लोग नाराज हैं। नोटबंदी ने उनकी संपत्तियों को उजागर कर दिया है। उन्हें अब हर सेवा का अधिक मूल्य चुकाना पड़ रहा है। ये एक सामान्य कदम साबित होता यदि आम लोगों और किसानों की खरीद क्षमता बढ़ाने के प्रयास पहले किये जाते। लोगों की जेबें यदि भरती रहतीं तो वे कतई नाराज न होते पर दुहरी व्यवस्था ने उन पर खर्च का बोझ बढ़ा दिया है। आज किसानों का गेहूं तो समर्थन मूल्य पर खरीदा जा रहा है पर बाजार में उसी गेहूं से तैयार आटा बहुत मंहगे दामों पर बिक रहा है।बिस्कुट जैसे अन्य उत्पादों के कई ब्रांड तो दस गुना ज्यादा दामों पर बिक रहे हैं। इस विपणन शास्त्र का मुनाफा किसानों को नहीं मिल पा रहा है इसलिए उसका आक्रोश सड़कों पर आ कर फट रहा है। उसे हवा देने वाले कंपनियों के प्रमोटर इस नाराजगी को हिंसक बनाने से भी नहीं चूक रहे हैं।
अब इन हालात में शिवराज जी कल से अनशन पर बैठकर गांधी वादी प्रयोगों को दुहराने जा रही हैं। जब अंग्रेजों ने जान लिया था कि हिंदुस्तान को अधिक समय तक प्रत्यक्ष गुलामी में नहीं रखा जा सकता तो उन्होंने गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस की मांगों के सामने समर्पण शुरु कर दिया था। गांधी जी सत्याग्रह करते और थोड़ी हीला हवाली के बाद अंग्रेज अपने हथियार डाल देते। कमोबेश यही इतिहास कल से एक बार फिर दुहराया जाने वाला है। किसान आंदोलन का समय 10 जून निर्धारित किया गया था। इसके बाद जेल भरो आंदोलन चलाया जाना है। अब इसके समानांतर मुख्यमंत्री जी धरने पर बैठने जा रहे हैं।किसानों का आव्हान किया जा रहा है कि वे उनसे मिलकर अपनी बात उन्हें बता सकते हैं। जाहिर है किसानों की इन्हीं सलाहों के नाम पर सरकार ठेका खेती करने वाली कंपनियों की कई मांगों को मंजूर करने का मन बना रही है। कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन की आड़ में की गई गुंडागर्दी ने सरकार के घुटने लगभग टिका दिए हैं। अब तक सरकार ने जो मांगे स्वीकार की हैं उनसे किसानों की जीत तो पहले ही हो चुकी है। अब सरकार उनके नाम पर जो फैसले लेगी उनसे ठेका खेती के मैदान में उतरीं कंपनियों के हित भी संरक्षित किए जा सकेंगे। इसके साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी भी एक बार फिर सुरक्षित हो जाएगी।
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