संघ को साकार करने वाला जाणता राजा


-आलोक सिंघई-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के कार्यकाल से ही समाज को संपूर्णता की ओर ले जाने का प्रयास करता रहा है। गद्दारी, परिवारवाद और अवसरवादिता ने उसे जितना बदनाम करने की कोशिश की वह दिन ब दिन निखरता चला गया। लाखों करोड़ों स्वयंस्वकों ने अपमान, कलंक और दुत्कार सहकर भी प्रखर राष्ट्रवाद की ज्वाला को लगातार जलाए रखा। ऐसे सैकड़ों स्वयंसेवकों को हम अपने आसपास देख सकते हैं जिन्होंने त्याग और तपस्या के उदाहरण प्रस्तुत किए और समाज के लिए जीते जागते मॉडल बन गए। स्व. अनिल माधव दवे उसी परंपरा के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र रहे हैं। जीते जी उन्होंने जितने देशभक्तों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया विदाई की बेला में वे उससे कई गुना अधिक चुंबकीय आकर्षण लेकर उपस्थित हुए। सौम्य व्यक्तित्व के धनी और प्रखर मेघा का तेज लिए हुए इस जाणता राजा के व्यक्तित्व को जितने नजरियों से तौला जाए उनके हिस्से वाला पलड़ा हर बार भारी साबित होता है।

संघ से विदा लेकर जब वे राजनीति के क्षेत्र में उतरे तो उनसे मिलने वालों को हरदम यही आशा रही कि वे कभी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे और प्रदेश को नई ऊंचाईयां प्रदान करेंगे। इसकी वजह भी थी कि वे कई बार मुख्यमंत्री बनाने का काम सहजता से कर चुके थे। जब प्रदेश में कांग्रेस के भ्रष्टतम शासनकाल की कालिख प्रदेश वासियों को बैचेन किए हुई थी तब भाजपा के थिंक टैंक जावली से ही दिग्विजय सिंह के लिए बंटाढार शब्द निकला। ये शब्द जनता की जुबान पर चढ़ गया और मतदाताओं को अपना फैसला करने में आसानी हुई। उस दौरान कांग्रेस की शासनशैली को इतनी बारीकियों से जनता के सामने प्रस्तुत किया गया कि लोगों ने समझ लिया कि कांग्रेस अपनी उम्र पूरी कर चुकी है।आज जब देश को कांग्रेस मुक्त करने की बात कही जाती है तो लोग इसे शेखचिल्ली का सपना कह देते हैं। उन्हें जरा भी भान नहीं कि उनकी सत्ता की चूलें उनके कुकर्मों ने किस तरह ढीली कर दीं हैं। देश की युवा पीढ़ी जब अराजकता फैलाने वालों की तुलना संघ के तपोनिष्ठ स्वयंसेवकों से करते हैं तो वे किसी प्रलोभन में आए बिना अपनी राह खुद चुन लेते हैं।

स्व. अनिल दवे भाजपा के वे नगीने थे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुलाकर मंत्री बनाया और अपने सहयोगी के रूप में उनका मार्गदर्शन प्राप्त किया। आज यदि देश में नदियों को विकास का इंजन बनाने का अभियान चल रहा है तो उसके पीछे स्व. अनिल दवे की ही सोच काम कर रही है। असम में नमामि ब्रह्मपुत्र अभियान, उत्तर प्रदेश में गंगा सफाई अभियान ऐसे ही उपक्रम हैं जो न केवल प्रदेशों को आत्मनिर्भर बना रहे हैं बल्कि पर्यावरण को संवारने में भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। मध्यप्रदेश में नमामि नर्मदे अभियान को फिजूलखर्ची बताने वाले कई ओछे राजनेता बदलाव की इस कुंजी को घूरा समझ रहे हैं जबकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे बदलाव की बयार बना डाला है। अपने व्यस्ततम समय में बदलाव करके श्री चौहान ने न केवल नर्मदा के तटों पर फैली विशाल आबादी से सीधा संपर्क स्थापित किया बल्कि उन्होंने इस क्षेत्र में भारी निवेश को भी न्यौता दे डाला है। मध्यप्रदेश आज गेहूं के उत्पादन में तो सिरमौर हो ही चुका है, साथ में अब वह कृषि उत्पादों की विशाल श्रंखला का भी सरताज बनने जा रहा है। ये बदलाव न केवल नर्मदा के तटों से शुरु हो रहा है बल्कि प्रदेश की तमाम नदियों के किनारों पर भी पुष्पित हो रहा है। जो लोग नर्मदा घाटी की क्षमताओं से परिचित नहीं हैं वे इसे बहुत हल्के में ले रहे हैं लेकिन नर्मदा घाटी का करीब से अध्ययन कर चुके अनिल दवे काफी पहले यहां की परिस्थितिकी की क्षमता का आकलन कर चुके थे। आजादी के बाद उत्पादकता बढ़ाने के सैकड़ों प्रयोग हुए हैं। औद्योगिकीकरण की मंहगी लागत के बाद भी देश को उसका फल नहीं मिल सका है। इसकी तुलना में नदी घाटों को संवारने की सोच कितनी तेजी में अपना असर दिखा रही है ये कृषि जिन्सों की बढ़ती पैदावार से सहज की महसूस किया जा सकता है।

आजादी के बाद कांग्रेस की अराजक राजनीति ने देश के लोगों को जितना गैरजिम्मेदार बनाया उसके चलते शासन करना किसी भी लोकतांत्रिक राजनेता के लिए बहुत कठिन हो गया था। कांग्रेस के शासक वे चाहे प्रधानमंत्री हों या मुख्यमंत्री सभी लुभावनी घोषणाओं का जाल फेंककर लोगों को कर्ज के दलदल में धकेलते रहे हैं। भाजपा के सामने भी यही चुनौती थी कि फोकटबाजी की अभ्यस्त जनता को वह कैसे सबल राष्ट्र बनाने की ओर ले जा सके। ये काम अचानक संभव नहीं था। आज जिस तरह नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आरोपों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है इतना प्रतिरोध कोई आम राजनेता झेल ही नहीं सकता था। स्व. अनिल दवे ये बात काफी पहले समझ चुके थे। इसलिए उन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने वाली हर आवाज को नर्मदा के घर तक ही सीमित कर दिया। उन्होंने जब सुश्री उमा भारती की सरकार का हश्र देखा तो समझ लिया कि इतना गरिष्ठ पकवान खाने की आदत न तो प्रदेश के उद्योगपतियों को है और न ही प्रदेश का मीडिया इतना समझदार और सक्षम है कि वह ढर्रेबाजी को अनुशासित कर सके। इसलिए उन्होंने मध्यमार्ग पर चलने वाली शिवराज सरकार को ही भाजपा का चेहरा बनाए रखने का सूत्र दिया।

शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार कांग्रेस की ही नीतियों पर चलने वाली सरकार साबित हुई और जिसने जनता के प्रतिरोध को बहुत हद तक शांत बनाए रखा। ये जादू शिवराज सिंह चौहान जैसा शांतचित्त और सेवा भावी राजनेता ही कर सकता था। भाजपा के भीतर से भी कई बार आवाजें उठीं कि ये सरकार भाजपा के बधियाकरण का प्रयास कर रही है। कांग्रेसियों को बेवजह स्पेस दिया जा रहा है। भाजपा की नीतियों को ताक पर धर दिया गया है। इस तरह की आवाजों के बीच शिवराज सिंह चौहान अनवरत जनता की योजनाओं को लागू करते चले गए। हालांकि कई बार चर्चा के दौरान अनिल दवे ने अपनी बैचेनी भी जाहिर की लेकिन उनका मानना था कि इससे बेहतर मार्ग फिलहाल कोई दूसरा नहीं हो सकता। जातियों और संप्रदायों की राजनीति के आदी हो चुके लोगों को पहले तो ये महसूस कराया जाए कि भाजपा सरकार उनके साथ भेदभाव नहीं करती है। कमोबेश उनका ये अनुमान सही भी साबित हुआ। आज शिवराज सिंह चौहान जिस तरह समाज के सभी तबकों में स्वीकार्य हैं ये अनिल दवे जैसे कुशल रणनीतिकार की ही देन थी। भाजपाईयों को कभी गांधी विरोधी और सांम्प्रदायिक होने का लेबल लगाकर बदनाम किया जाता था लेकिन गांधी मार्ग का अनुसरण करके अनिल दवे की रणनीति ने वो षड़यंत्रकारी लेबल उतार फेंका। वीर शिवाजी की छापामार शैली को लोकतांत्रिक राजनीति के मंच पर साकार करने वाले अनिल दवे आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके सन्मार्ग पर चलकर टकराव टालने वाली सोच निश्चित तौर पर देश को एक मजबूत राष्ट्र की ओर ले जाएगी। उन्होंने अपनी पारी बखूबी खेली अब उनकी पगडंडी को राजमार्ग बनाना अगली पीढ़ी के नेताओं की जिम्मेदारी है।
(लेखक जन न्याय दल के प्रदेश प्रवक्ता भी हैं)

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