कड़वे प्रवचन सुनाने वाले संत तरुण सागर जी के विचारों से असहमति जताई जा सकती है। शायद ये समझ बूझकर ही तरुण सागर जी अपने विचारों को कड़वे प्रवचन कहते रहे हैं। देश भर में बुखार आने पर कहा जाता है कड़ुए भेषज पिए बिन मिटे न तन को ताप । जाहिर है वैचारिक बुखार को दूर करने के लिए कड़वे विचारों की ही औषधि असरकारी हो सकती है। यही सोच समझकर हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने इसके लिए सदन का विशेष सत्र भी बुला डाला। यही नहीं राजदंड की ऊंचाई पर बिठाकर तरुण सागर जी से कड़वे प्रवचन भी करने का निवेदन कर डाला। इस गरिमापूर्ण फैसले के लिए हरियाणा की विधानसभा की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। इससे इतना तो साबित हो गया है कि खट्टर सरकार समस्याओं का समाधान करने के लिए पूरी तरह संकल्पित है।
तरुण सागर जी बरसों से अपने प्रवचनों में कहते रहे हैं कि दुनिया के सदनों में सबसे खतरनाक लोग बैठते हैं। वे कहते हैं कि यदि सत्ता के इन सिंहासनों पर बैठने वालों की गलती ये है कि उन्हें कोई बताता नहीं कि वे कैसे जनता के दिलों पर राज कर सकते हैं। सत्ता के मद में डूबे ये सत्ताधीश गरीब और कमजोर लोगों को कुचलने को ही शासन करना समझ बैठते हैं। अब इस विचार में क्या बुराई है। क्या हमारे राजनेता अपनी जिद पूरी करने के लिए जनता की नीतियों का मुंह अपने निजी खजाने के हित में नहीं मोड़ देते हैं। यदि ऐसा न होता तो आज आजादी के सत्तर सालों बाद तक हम देश के आम नागरिकों की मूलभूत जरूरतें तक क्यों नहीं मुहैया करा पाए हैं। चांद सूरज तक की दूरियां तय करने में सफल होने के बावजूद हम देश की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को सुखी जीवन क्यों नहीं मुहैया करा पा रहे हैं। वे कौन सी बाधाएं हैं जो हमारे राजनेताओं, अफसरों और न्यायाधीशों को अपना कर्तव्य पूरा करने से रोकती हैं। क्या इन मुद्दों पर चिंतन नहीं होना चाहिए। पर ये करे कौन। सत्ता की सवारी करने वालों को तो बस अपनी सफलताओं का लक्ष्य दिखता है। फिर पिछड़ गए लाचार की बात कौन करेगा।
सत्ता पर काबिज होने की होड़ इतनी खतरनाक है कि अच्छे से अच्छा राजनेता बुराईयों को देखने और उसे दूर करने की जुर्रत नहीं कर पाता है। वो तभी तक राजनेता है जब तक लोग उसे चुनते रहते हैं। जिस दिन उसे वोट मिलना बंद हुआ उसी दिन वो कचरे के डिब्बे में पहुंचा दिया जाता है। अब इन हालात में बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। तरुण सागर जी बरसों से देश के गली कूंचों में घूम फिरकर बोलते रहे हैं कि यदि सत्ता के सर्वोच्च सदन सुधर जाएं तो देश के हालात बदले जा सकते हैं। सरकारों को उनकी ये आवाज बहुत पहले सुन लेनी चाहिए थी। इस आवाज को सत्ता का संदेश भी बना दिया जाना था। ये इसलिए न हो पाया क्योंकि देश की जनता कांग्रेस को आजादी दिलाने वाली पार्टी मानती रही है। वो कांग्रेस को ही सत्ता में भेजती रही। कांग्रेस की सरकारें अंग्रेजों की कृपा पर इतनी ज्यादा निर्भर रहीं हैं कि वे देश की आवाज को सदन के पटल तक पहुंचने ही नहीं देती थीं। ज्यादातर समय देश में एक पक्षीय शासन ही चलता रहा। सरकार को जनता के लिए जो नीतियां पसंद थीं वही लागू की जाती रहीं। सत्ता में जनता की भागीदारी उतनी ही रही जितने से लोकतंत्र की छवि बनी रहे। जनता बरसों से इस समस्या को समझती रही है।
तरुण सागर जी जैसे कई संत बरसों से समाज की आवाज बोलते रहे हैं और समय के साथ विदा होते रहे हैं। तरुण सागर जी कोई पहले आदमी नहीं जिन्होंने सामाजिक समस्याओं के लिए सदनों तक पहुंचने वालो को जिम्मेदार बताया हो। शायद कांग्रेस की सरकारों में इस सच को स्वीकार करने का साहस ही नहीं रहा। निराशा का दौर झेलती रही देश की जनता ने बरसों बाद अंत्योदय की बात कहने वाली भाजपा को देश की बागडोर सौंपी है। इसी वजह से सत्ता के सिंहासनों पर जनता की आवाज सुनाई देने लगी है। मनोहर लाल खट्टर सरकार ने लीक से हटकर देश विदेश में गूंजती एक आवाज को सत्ता की आवाज बनाने का साहसिक कारनामा कर दिखाया है। देश के राजनेताओं और जनता ने भी इस आवाज को सकारात्मक तौर पर लिया है। आखिर राजनेता भी तो जनता के बीच से ही आते हैं। वे भी जनता के दर्द को समझते हैं। उनकी मजबूरी ये होती है कि सत्ता को ताकत देने वालों का लालच उन्हें धकेलकर आगे कर देता है और उसकी आड़ में अपने गोरखधंधे भी खोल देता है। इसलिए हरियाणा सरकार ने सत्ता के पर्दे की आड़ में पलने वाले लालची लोगों को स्पष्ट संदेश दिया है।
गौरव की बात ये है कि देश के किसी सत्ताधीश ने इस फैसले की बुराई नहीं की है। बुरा तो उन्हें लग रहा है जो सत्ता के नाम पर घोटालों का जंजाल फैलाए रहते हैं। थोड़ा थोड़ा दान और खुद का महाकल्याण जिनका सूत्र वाक्य होता है. वे भी तरुण सागर जी की बात को गलत तो नहीं ठहरा सकते इसलिए उन्होंने कहना शुरु कर दिया कि प्रवचन गलत स्थान पर हो गए। वो स्थान चुने हुए प्रतिनिधियों का है। इसलिए उस स्थान का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली आप पार्टी के नेता विशाल दादलानी ने तो दिगंबर जैन संत पर ही मजाक छोड़ दिया। ये सभी वो लोग हैं जो सत्ता की आड़ में रबड़ी सूंतते रहे हैं।
मध्यप्रदेश में दमोह तेंदूखेड़ा की माटी में पैदा हुए इस संत की प्रतिभा को मध्यप्रदेश सरकार पहले ही पहचान चुकी थी। इसलिए मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी उनके प्रवचन कराए गए। इस बार उस आवाज को और बुलंद बनाने के लिए हरियाणा की सरकार ने जनता के अधिकृत मंच का उपयोग कर अपनी रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। जो लोग कह रहे हैं कि तरुण सागर जी को जनता के दरबार का उपयोग नहीं करने देना था वे भूल जाते हैं कि ये पवित्र सदन जनता की आवाज को ही स्वर देने के लिए बनाए गए हैं। यही काम तो हरियाणा में हुआ। विरोध करने वाले क्या चाहते हैं कि नियमों, कानूनों और परंपराओं के बियाबान में जनता की आवाज को हमेशा कुचला जाता रहे। बच्चा बच्चा जानता है कि यदि राजनेताओं को मजबूर न किया जाए तो वे जनता के हितों की पैरवी जरूर कर सकते हैं। इसके बावजूद ताकतवर लोग जन प्रतिनिधियों को उनके लिए नियम कानून बनवाने में ही लगाए रखते हैं। विरोध की सुगबुगाहट लेकर रेंग रहे लोग तरुण सागर जी के उद्घाटित सच का विरोध करने की औकात तो रखते नहीं इसलिए वे उनके दिगंबर रूप और विधानसभा की परंपरा का तर्क देकर इस विचार को खारिज करने का षड़यंत्र कर रहे हैं। बेचारों को पता नहीं कि जनता की आवाज आंधी होती है जो राह में आने वाले दरख्तों, दीवारों को जमींदोज भी कर देती है।
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