प्रतिपूरक वनीकरण निधि कानून की सामयिकता……
भरतचन्द्र नायक…..
वन संपत्ति प्रकृति का अनुपम उपहार है। वनों के क्षरण को लेकर लगातार चिंता व्यक्त की जाती रही है और विरोधाभास यह भी है कि इसके लिए वन प्र्रान्तर में रहने वाले उन आदिवासियों के सिर ठीकरा फोड़ा जाता रहा है, जो आदिकाल से वनों के न्यासी सिद्ध हुए है। संपत्ति की लालसा और प्रगति की चाह में हमनें आधारभूत मानवीय संस्कारों को तिलांजलि दे दी है। वन संपत्ति की अवधारणा को पूंजी में परिवर्तित कर लिया है। लेकिन आदिवासी, वनवासियों ने हमेशा निजी संपत्ति की उस धारणा को नकारा है जो सभ्य समाज कहे जाने वाले समुदाय का प्रिय शगल है। आदिकाल से वे जानते रहे है कि प्रकृति के शोषण की लालसा इंसान के लिए आपदा का आमंत्रण है। प्रकृति के साथ तादाम्य, मानवेत्तर प्राणियों के साथ सह अस्तित्व का जीवन जीना आदिवासी परंपरा का अटूट हिस्सा है। वैश्वीकरण ने निजी संपत्ति की धारणा को प्रबल किया, पूंजी का वर्चस्व बढ़ा। मानवीय, जीव-जगत, वन-संपदा के सरोकार तिरोहित हो गये, जिसनेे वन संपत्ति के दोहन के बजाय शोषण का मार्ग खोल दिया। वनों के अंधाधुंध शोषण से जहां प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया, वहीं वन्य प्राणी आश्रय की खोज में शहरों की आरे झांकने लगे, बाघ, मगर के बाद अजगर के कदम बसाहट की ओर बढ़ते देखे जा रहे है। वहीं आखेट करने वालों ने मौके का फायदा उठाकर वन्य प्राणियों का शिकार करना शौक और व्यवसाय बनाकर ‘कोढ़ में खाज’ पैदा कर दी।। देर आयत-दुरूस्त आयत, केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने प्रतिपूरक वनीकरण को प्राथमिकता दी। राज्यों से इससे सरोकार जोड़ने के लिए पूर्व में निधि गठित की गयी थी, लेकिन इस निधि के परिचालन के लिए संवैधानिक व्यवस्था न होने से राज्यों से प्राप्त क्षतिपूर्ति वनीकरण की 40 हजार करोड़ रू. की राशि फिक्सड़ डिपाॅजिट में जमा रही। ब्याज तो बढ़ता गया लेकिन राज्य इस निधि से अंशदान के लिए तरसते रहे। मोटे तौर पर तय किया गया था कि एक हेक्टेयर वन भूमि के गैर-वन के लिए उपयोग होने पर दो हेक्टेर में क्षतिपूर्ति वनीकरण किया जाये, जो सिर्फ औपचारिक तौर पर कागजों पर होता रहा।
संसद के पावस सत्र की यह एक उपलब्धि कही जायेगी कि संसद ने दो ऐसे बिल सर्वोच्च प्राथमिकता से पारित कर दिये जिससे एक ओर आर्थिक क्रांति की आशा की जा सकती है। पहला वस्तु एवं सेवा कर विधेयक है एवं दूसरा प्रतिपूरक वनीकरण निधि विधेयक है, जो वनों के बारें में परंपरागत सोच के स्थान पर वैज्ञानिक आधार पर वनीकरण को देशव्यापी बनानें और वन्य जीवों को सहेजने, संवारनें में मील का पत्थर सिद्ध होगा। वनवासियों के जीवन स्तर में सुधार होगा। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अनिल माधव दवे ने आशा व्यक्त की है कि इससे देश को जलवायु परिवर्तन की तपिश से मुक्ति मिलने में सहायता मिलेगी। जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में भारत वैसे भी प्रयासवान अग्रणी मुल्क है, इस विधेयक के अमल में आने सेे ‘सोने में सुहागा’ होगा।
प्रतिपूरक वनीकरण निधि विधेयक का सरोकार वन से संबद्ध सभी पक्षों की बेहतरी से होगा। वनों पर आश्रित समुदाय की आजीविका, वनों, चरागाहों, दलदली क्षेत्र समेत प्राकृतिक पारितंत्र के संरक्षण, सुरक्षा, पुर्नवास पर सुविचारित प्रणाली के तहत उपयोग में लायी जायेगी। यह भी एक वास्तविकता है कि दुनिया में वन आश्रित अर्थव्यवस्था भारत की पुरातन परंपरा है, बड़ी संख्या में आबादी वनों पर निर्भर है। वनों की उपयोगिता औद्योगिक प्रयोजन के अलावा, कार्बन को सोखने, बाढ़ की विभीषिका को रोकने, मिट्टी को सरंक्षित रखने, मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने के अलावा जलवायु के अनुकूलन के लिए भी है। हम वन को वृक्षों का समूह मानकर रह जाते है। लेकिन वन जीवित परितंत्र है जो जैव विविधता को आश्रय देते है और परिस्थितीय प्रतिकूल विकृति पर लगाम लगाता है। प्रतिपूरक वनीकरण निधि (सीएपी) विधेयक केंपा सभी सरोकारों को एक सूत्र में पिरोता है। इससे यह भी कहा जा सकता है कि इससे पंचायती राज व्यवस्था की भावना समृद्ध होगी। पंचायत की भूमिका और वर्चस्व पर आंच नहीं आयेगी। संसद में इस आशय की प्रतिबद्धता अनिल माधव दवे व्यक्त कर भी चुके है।
‘‘केंपा का दिलचस्प सफर’’
प्रतिपूरक वनीकरण निधि विधेयक और इसके परिचालन के लिए अनिवार्य प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्राधिकरण केंपा के लिए पूर्व में सारे काम तदर्थवादी भावना से मनमाने ढंग से चल रहे थे। राज्यों में वनभूमि ली जाती, क्षतिपूर्ति राशि एक हेक्टेयर के बदले में दो हेक्टेयर वन विस्तार की योजना बनती, कागजी जमा खर्च होता रहता था। अस्सी के दशक में वनों के सिकुड़ने का अहसास होने पर वन पर्यावरण क्षेत्र में केन्द्र का वर्चस्व होने के लिए व्यवस्था की गयी। राज्यों की परियोजना बिजली घर, बांध, सड़क, बिजली लाईन ले जाने, कारखाना, खनिज उत्खनन, स्कूल जैसे सार्वजनिक कार्यों के लिए भूमि की आवश्यकता पर निर्णय लेने का अधिकार केन्द्र से निहित हो गया। 2008 में केन्द्र सरकार ने प्रतिपूरक वनीकरण निधि विधेयक तैयार किया। विधेयक लोकसभा में पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में बहस के लिए प्रस्तुत नहीं हो सका। इसी दरम्यिान लोकसभा विघठित हो गई। परिणाम स्वरूप विधेयक लेप्स हो गया। प्रतिपूरक निधि झमेले में पड़ गयी। तब लेखा महानिरीक्षक ने प्रतिपूरक निधि को शासकीय लेखा से परे जमा करने का सुझाव दिया। सर्वोच्च न्यायालय से तदर्थ केंपा के बारें में मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता महसूस की गयी, जिससे प्रतिपूरक वनीकरण राशि लोक लेखा का अंश बन सके। इसी परिप्रेक्ष्य में 2014 मंे वन पर्यावरण मंत्रालय ने केंपा की स्थायी रूप से शुरूआत की। केन्द्र और राज्यों में निधि संचालन के लिए प्रथक-प्रथक प्राधिकार स्थापित करने का खाका तैयार कर अंतिम निर्णय के लिए सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दिया। अभी तक सर्वोच्च न्यायालय से इस संबंध में सहमति अपेक्षित है। वनों की क्षतिपूर्ति और प्रतिपूर्ति वनीकरण निधि के उपयोग की त्वरा को देखते हुए केन्द्र सरकार ने लोकसभा में प्रतिपूरक वनीकरण निधि विधेयक-2015 लोकसभा में प्रस्तुत कर दिया। 13 मई 2015 को लोकसभा ने विधेयक विज्ञान-टेक्नोलाॅजी संसदीय स्थायी समिति के विचारार्थ भेज दिया। समिति की राज्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों और इससे संबद्ध व्यक्तियों, संस्थाओं के साथ बैठकों का लंबा दौर चला। 26 अनुशंसाएं की गयी, जिनमें से 20 अनुशंसाएं मंजूर कर ली गयी। विधेयक में 49 संशोधन कर दिये गये। लोकसभा ने मई 2016 में विधेयक पारित कर दिया। 28 जुलाई 2016 को राज्यसभा ने भी विधेयक पर अपनी मोहर लगाते हुए तदर्थवाद से मुक्ति दिला दी। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री अनिल माधव दवे ने राज्यसभा को विश्वास दिलाया है कि एक वर्ष बाद जनता की आपत्ति पर पुनः विचार किया जायेगा और नियमों का जन सुविधा की दृष्टि से पुनार्वलोकन किया जायेगा।
केंपा बिल के पारित हो जाने के साथ जमा राशि 40 हजार करोड़ रू. और ब्याज की राशि करीब 2000 करोड़ रू. देश के प्रदेशों में प्रतिपूर्ति वनीकरण के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत उपयोग किये जायेंगे। इससे प्रत्यक्ष रोजगार की दृष्टि से 15 करोड़ मानव दिवस का रोजगार सृजन होगा। दुनिया के वन क्षेत्र का 40 प्रतिशत वन क्षेत्र भारत के बिगड़े वन के रूप में मौजूद है। इसे हरि परिधानाच्छादित करने का बीड़ा उठाया जाना है। इससे वनवासी, पिछड़ी जाति बहुल वसाहटों मंे जहां रोजगार के अवसर बढ़ेंगे वहीं वन-पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता का ज्वार उठेगा। इमारती लकड़ी, काष्ठ, पशुचारा की उन्नत किस्में वनोपज के साथ विपुल क्रांति लायेगी जिससे इन क्षेत्रों में निवासियों के जीवन स्तर में सुधार होगा। केंपा विधेयक के कानून के रूप में अमल में आते ही केन्द्र और राज्य स्तर पर स्थायी संस्थागत सरंचना तैयार होगी जो इस निधि के विधि और तर्क संगत उपयोग पर नजर रखेगी। यह निधि ऐसे खाते में जमा होगी जो लेप्स नहीं होगा, किन्तु ब्याज की निरंतरता बनी रहेगी। संसद और विधानसभा निगरानी के लिए सक्षम होगी। एक मानीटरिंग समूह भी गठित किया जायेगा। प्रतिपूरक वनीकरण निधि जो 40 हजार करोड़ प्लस 2000 करोड़ रू. ब्याज है में से 90 प्रतिशत राज्यों को और 10 प्रतिशत केन्द्र के हिस्से में आयेगी। इस दरम्यिान राज्यों में वनभूमि गैर-वन के उपयोग में ली जायेगी, उससे क्षतिपूर्ति राशि की उगाही गयी राशि राज्यवार लोक निधि मद में जमा की जायेगी। वन सरंक्षण कानून-1980 में वनभूमि गैर-वन के प्रयोजन के लिए दिये जाने की अनुमति के साथ यह शर्त रखी है कि इस क्षतिपूर्ति राशि के प्राप्त होने पर उसका उपयोग क्षतिपूर्ति वनीकरण, जलग्रहण क्षेत्र के उपचार, वन्य-जीव प्रबंधन और वन भूमि के प्रत्यावर्तन से उत्पन्न समस्याओं के समाधान पर किया जायेगा। अब इस दिशा में नियमों का कड़ाई से पालन होगा।
केन्द्र सरकार ने पर्यावरण सरंक्षण कानून-1985 के तहत प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन और नियोजन प्राधिकरण केंपा का गठन किया था, लेकिन व्यवस्था प्रभावशील नहीं हो सकी थी। नये परिप्रेक्ष्य में केंपा व्यवस्था को संवैधानिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है और विश्व में जलवायु परिवर्तन के दौर की चुनौती से निपटने के जो उपाय विश्वव्यापी चल रहे है, उसमें भारत की अग्रणी भूमि तय करनें में यह व्यवस्था निश्चित रूप से सार्थक सिद्ध होगी।
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