अब तो मिटा दीजिए धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

-संदीप कोरी-

बदलते वक्त ने भारत की कई व्यवस्थाओं को अप्रासंगिक कर दिया है। इसके बावजूद ढर्रे पर चलने वाली सरकारों ने उन्हें छोड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। देश पर आपातकाल थोपने वाली इँदिरागांधी के कई फैसले वक्त की कसौटी पर देश से गद्दारी साबित हो रहे हैं। इसके बावजूद सत्ता की सुविधा को देखते हुए उन फैसलों पर सरकारें खामोश बनी हुईं हैं। अब तक की कांग्रेसी सरकारों से तो उन फैसलों को बदलने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी लेकिन इसके बाद आई गैर कांग्रेसी सरकारों ने भी उन फैसलों पर चुप्पी साधे रखी। संविधान में किया गया 42 वां संशोधन इसी तरह का एक विवादास्पद हस्तक्षेप था जिसे अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार इसलिए नहीं बदलना चाहती क्योंकि इससे मतों का ध्रुवीकरण होता है और वो सत्ताधीश के लिए फायदेमंद महसूस होता है। हालांकि ये संशोधन भारतीय गणराज्य को एकजुट रखने की दिशा में सबसे बड़ा व्यवधान बना हुआ है।

इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान कानून में जो संशोधन किए उनके बाद उसे अंग्रेजी में ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया’ की जगह ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था. इस दौर में संविधान में जो बदलाव किए गए उनके क्या नतीजे निकले और बाद में जनता पार्टी सरकार ने 44 वें संशोधन के माध्यम से जो बदलाव किए क्या वे भी कारगर कहे जा सकते हैं।संविधान से खिलवाड़ का ये दौर इंदिरागांधी की तानाशाही भरी सोच से उपजी थी। जिसने पूर्ववर्ती सरकारों के वायदों को धूल धूसरित कर दिया था।

19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी को चुनाव याचिका की सुनवाई के लिए न्यायालय में गवाही के लिए आना पड़ा था।इसी वक्त जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लाखों लोगों की भीड़ दिल्ली की सडकों पर इंदिरा गांधी के खिलाफ नारे लगा रही थी। दिल्ली की सड़कों पर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है और जनता का दिल बोल रहा है इंदिरा का शासन डोल रहा है के नारे लगाए जा रहे थे।

इंदिरा गांधी ने तब अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा कि कुछ विदेशी ताकतें भारत में अस्थिरता लाना चाहती हैं। इसलिए आपातकाल समय की जरूरत है। इसके लिए उन्होंने कई संविधान संशोधन किए। 40 वें और 41 वें संशोधन के बाद उन्होंने 42 वां संशोधन पास करवाया जिसमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे लुभावन शब्दों की आड़ में पूर्ववर्ती सरकारों के कई वायदे तोड़ दिए गए।

कुछ ही दिनों बाद 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी के चुनाव को गलत बताते हुए रद्द कर दिया। इसी महीने 25 जून को देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया. इसके बाद संविधान में कई संशोधन किए गए और जनता के हाथों दी गईं शक्तियां छीनकर शासक के हाथों में सौंप दी गईं.

आपातकाल में हुए संशोधनों में सबसे पहला था भारतीय संविधान का 38वां संशोधन. 22 जुलाई 1975 को पास हुए इस संशोधन के द्वारा न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया गया. इसके लगभग दो महीने बाद ही संविधान का 39वां संशोधन लाया गया. यह संविधान संशोधन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद को बनाए रखने के लिए किया गया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर चुका था. लेकिन इस संशोधन ने न्यायपालिका से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार ही छीन लिया. इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ संसद द्वारा गठित की गई समिति ही कर सकती थी. आपातकाल को समय की जरूरत बताते हुए इंदिरा गांधी ने उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन किये. 40वें और 41वें संशोधन के जरिये संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के बाद 42वां संशोधन पास किया गया. इसी संशोधन के कारण संविधान को ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था. इसके जरिये भारतीय संविधान की प्रस्तावना तक में बदलाव कर दिए गए थे.

42वें संशोधन के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक था – मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना. इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था. इसके साथ ही इस संशोधन ने न्यायपालिका को पूरी तरह से बौना कर दिया था. वहीँ विधायिका को अपार शक्तियां दे दी गई थी. अब केंद्र सरकार को यह भी शक्ति थी कि वह किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी. साथ ही राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया.

42वें संशोधन का एक और कुख्यात प्रावधान ‘संविधान में संशोधन’ के सम्बंध में भी था. हालांकि आपातकाल से कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में ऐतिहासिक फैसला देते हुए संविधान में संशोधन करने के पैमाने तय कर दिए थे. लेकिन 42वें संशोधन ने इन पैमानों को भी दरकिनार कर दिया. इस संशोधन के बाद विधायिका द्वारा किए गए ‘संविधान-संशोधनों’ को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को दे दिया गया और संसद का कार्यकाल भी पांच वर्ष से बढाकर छह वर्ष कर दिया गया.

आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान में कुछ संशोधन ऐसे भी हुए जिन्हें उस वक्त सकारात्म नजरिए से देखा गया। संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्दों को जोड़ दिया गया।कहा गया कि ये हमारा मौलिक कर्तव्य भी है। जबकि आज समाजवाद पूरे विश्व से तिरोहित हो चला है। धर्मनिरपेक्षता ने समाज को बांटकर रख दिया है। इससे जहां मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा देकर कांग्रेस की सरकारों ने वोट बैंक पालिटिक्स खेली वहीं आगे चलकर ये ध्रुवीकरण भाजपा के सत्तासीन होने की प्रमुख सीढ़ी भी बना।आज जो लोग भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाते हैं उसके पीछे इस संशोधन से जबरिया पैदा किया दबाव भी शामिल है। जब वैश्विक उपभोक्तावाद ने प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया है तब ये संशोधन जबरन मारें रोवन न देय के हालात पैदा कर रहा है।

आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी बुरी तरह चुनाव हारीं। 1977 में पहली बार भारत में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने आते ही संविधान के बदलावों को सुधारने का काम किया। इसकी जवाबदारी तत्कालीन कानून मंत्री शांति भूषण को दी गई। जनता पार्टी ने सबसे पहले 43वें संशोधन के जरिये सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों को उनके अधिकार वापस दिलाए। इसके बाद संविधान में44वां संशोधन किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी 42वें संशोधन के कई प्रावधानों को असंवैधानिक बताते हुए संविधान को उसका मूल स्वरुप लौटाया।

न्यायपालिका को दोबारा मजबूती देकर और 42वें संशोधन के दोषों को दूर करने के साथ ही 44वें संशोधन ने संविधान को पहले से भी ज्यादा मजबूत करने का काम भी किया है. इस संशोधन ने संविधान में कई ऐसे बदलाव किये जिससे 1975 के आपातकाल जैसी स्थिति दोबारा उत्पन्न न हो. आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों में ‘आतंरिक अशांति’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द जोड़ा गया. इसके साथ ही इस संशोधन ने मौलिक अधिकारों को भी मजबूती दी।हालांकि कांग्रेस की सरकारों ने षड़यंत्र इसके बाद भी खत्म नहीं किए। जब मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरु हुए तो अफवाह फैलाई गई कि सेना की एक सशस्त्र टुकड़ी दिल्ली की ओर कूच कर गई है। सजग सेनाध्यक्ष ने तब इस अफवाह का खंडन किया और आपातकाल लगाने का कांग्रेस का षड़यंत्र फिर फेल हो गया।

जनता पार्टी की सरकार अपने आंतरिक विरोधों की वजह से ज्यादा नहीं चल सकी। कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर बनाई गई सरकार के घटक आपसी खींचतान में उलझ गए और उन्होंने सरकार को बिखेर दिया। कांग्रेस की सरकारों की रीढ़ तोड़कर भले ही जनता पार्टी की सरकार ने देश में लोकतंत्र की बहाली की इबारत लिखी हो लेकिन वह एक नए देश के निर्माण का वादा पूरा नहीं कर सकी। इसके बाद आई गैर कांग्रेसी सरकारों ने भी काफी काम किया लेकिन वे इंदिरा गांधी के सत्ता को केन्द्रित करने वाले फैसलों को नहीं बदल सकीं। मौजूदा मोदी सरकार समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों को बदलकर अपना दायित्व निभा सकती है क्योंकि इन शब्दों को लेकर आरएसएस और भाजपा ने ही देश को आशा की नई किरण दिखलाई थी।

(लेखक जन न्याय दल के भ्रष्टाचार मुक्त भारत,जनांदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं)

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