विकास की खंती को आदिकालीन कानून से भरने की कोशिश


-आलोक सिंघई-
बारह साल से कम उम्र की बेटियों से व्यभिचार करने वालों को फांसी की सजा से दंडित करने का कानून बनाकर शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने जनभावनाओं के समुंदर पर अपना परचम फहराने की कोशिश की है। इस काम के लिए सरकार को बारह साल लग गए। चित्रकूट के उपचुनाव के नतीजों ने सरकार को ये दिव्यज्ञान प्रदान किया कि जन आकांक्षाओं के ज्वार में टिके रहने के लिए किसी न किसी पतवार का प्रयोग करना अब जरूरी हो गया है। मुख्यमंत्री का ये तीर इतना तीखा था कि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी धराशायी हो गई। उसके सामने मजबूरी थी कि वह इस दंड विधि संशोधन विधेयक का समर्थन करे। अब ये कानून मध्यप्रदेश विधानसभा ने पारित करके केन्द्र की ओर भेज दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि उनके इस प्रयास को पूरे देश में समर्थन मिलना चाहिए। पूरा देश विचार करे कि वो समाज के आधे हिस्से के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा में लाए गए इस संशोधन विधेयक पर चर्चा करते हुए कहा कि स्त्री के प्रति पूरे देश में जो सम्मान का भाव रहा है वो हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। हम स्त्री को देवी के रूप में पूजते हैं और मां के रूप में उसका आदर सम्मान करते हैं। ये बात सही है कि गाय और गौरी दोनों भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण मिसालें रहीं हैं। भारत में स्त्री के साथ गाय को भी पूजा जाता है। इस संस्कार पर भारत के हर नागरिक को गर्व है। इसलिए सरकार ने जो नया कानून बनाया है वो जनभावनाओं से उपजा कानून है। संसद को चाहिए कि वो इस कानून पर विचार करे, अन्य राज्यों में इस पर चर्चा कराए और इसे सर्वसम्मति से पारित करवाकर उसे कानून की शक्ल प्रदान करे। भारतीय दंड संहिता में जो कानून बनाए गए उन पर इसी तरह विस्तृत विमर्श किया गया था। वो भी तब जबकि पूरे देश में संचार के आधुनिक साधन मौजूद नहीं थे। पहले किसी कानून को बनने में यदि बरसों लगते थे तो आज ये काम चंद दिनों में पूरा हो सकता है। जन संचार के आधुनिक साधन बरसों का काम चुटकियों में पूरा कर सकते हैं निश्चित तौर पर इस कानून के विमर्श की दिशा में शिवराज सिंह सरकार का ये प्रयास बड़ा महत्वपूर्ण कहा जाएगा। देश और समाज को न केवल स्त्री के प्रति अपने नजरिए को बदलना पड़ेगा बल्कि कई अन्य कानूनों पर भी देश में व्यापक विमर्श करने का वक्त अब आ गया है। वहीं जब देश ने 1991 में तय कर लिया कि वो अब पूंजीवाद के रास्ते पर चलेगा तो उसके लिए ऐसे तमाम कानून अप्रासंगिक हो गए जो कभी समाजवादी, साम्यवादी,या गांधीवादी सोच के बीच बनाए गए थे। स्त्री और पुरुष को समान मानना भी इसी दिशा का एक बड़ा बदलाव है। ये बात भी सही है कि स्त्री और पुरुष भले शारीरिक और मानसिक तौर पर भिन्न हैं पर वोट के धरातल पर उनकी कीमत एक समान है। उत्पादकता के धरातल पर भी उनका मूल्य एक समान है। इसके बावजूद जातिगत आरक्षण के समान लिंग आधारित आरक्षण भारतीय समाज की कड़वी हकीकत है। पूंजीवाद के मार्ग पर चलते समय हमें स्त्री और पुरुष को लिंगभेद से ऊपर उठकर उत्पादकता का समान उपकरण मानना जरूरी हो गया है। जाहिर है कि स्त्री को पुरुष के समान ही वेतन और लाभ दिए जाने जरूरी हैं। पूंजीवाद इसके साथ साथ स्त्री की उत्पादकता को भी जोड़ता है।उसे मातृत्व अवकाश, देर रात की पाली में सुरक्षा, शारीरिक भिन्नता के आधार पर काम में अंतर जैसी शर्तें लागू हैं पर आरक्षण जैसी असमानता को अनुपयोगी माना गया है। अब उस पर भी उत्पादकता को बरकरार रखने का दबाव आ गया है। इन हालात में स्त्री पुरुष की भूमिका में सांगोपांग विमर्श समय की जरूरत बन गया है। जो लोग कह रहे हैं कि इस नए कानून का दुरुपयोग,अनुसूचित जाति भेदभाव विरोधी कानून और स्त्री अस्मिता को बचाने के लिए बनाए गए पुराने कानूनों की तरह हो सकता है उनकी बात में दम है। इसके बावजूद वे भी पुरातनपंथी सोच के दायरे में ही विचार कर रहे हैं। दरअसल पूंजीवाद की राह अपना लेने के बाद हमें अपने तमाम कानूनों पर नए सिरे से विचार करना जरूरी हो गया है।क्योंकि उन कानूनों के प्रावधानों का अब औचित्य ही नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार की सबसे बड़ी विफलता ये है कि पिछले चौदह सालों के कार्यकाल में उसकी सरकारों ने केवल आधारभूत ढांचे के विकास पर ही जोर दिया है। मंहगे कर्ज और प्रदेश के संसाधनों को भी अधो संरचना के नाम पर निछावर कर दिया गया। अब जबकि बेरोजगारों की फौज अराजकता पर उतर आई है तब सरकार इसे कानूनों के जाल से बांधने का निरर्थक प्रयास कर रही है। केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सत्ता संभालने के बाद कहा था कि वो बेकार के कानूनों को हटा देगी। उसने इस दिशा में कई प्रयास भी किए। इसके बावजूद अब खुले समाज की ओर बढ़ते हिंदुस्तान को कानूनों की नई बेड़ियों में जकड़ने के जो प्रयास किए जा रहे हैं वे विकास की रफ्तार पर लगाम लगाने वाले ही साबित होने वाले हैं। अब तक भाजपा की सरकारों ने यदि देश को विकास पथ पर अग्रसर किया होता तो ये नौबत ही न आती। जिस समाज का साक्षात्कार विकास की ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं से हो जाता है वो फिर लिंगभेद आधारित भेदभाव और शोषण की फिजूल फितरतों से ऊपर उठ जाता है। शिवराज सिंह सरकार का कानून बनाने का प्रयास फिलहाल मजबूरी में हाथ पांव मारने से ज्यादा कुछ नहीं कहा जाएगा। अभी इस कानून को लंबा रास्ता तय करना है। इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिलनी है।संसद और न्यायपालिका की हरी झंडी मिलनी है। तब जाकर इसे भारतीय दंड संहिता में जगह मिल सकेगी। सबसे बडी बात तो ये है कि ये कानून यदि बन भी जाता है तो पूंजीवाद की ओर बढते देश में ये निरर्थक रहेगा। जो समाज पूंजी बनाने में जुट जाए उसे इतनी फुर्सत नहीं होती कि वह स्त्री पर अत्याचार करके अपना समय बर्बाद करे।उसके लिए तो स्त्री वैसे ही पूंजी उत्पादन का एक सहज उपकरण साबित होती है,जैसे पुरुष । देश के राजनेताओं को इस पर गहन चिंतन करना होगा तभी जाकर हम संतुलित समाज का लक्ष्य पा सकेंगे।

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