लुटेरों की सोहबत से उकताने लगे कांग्रेसी


मध्यप्रदेश के कांग्रेसजन इन दिनों चकित हैं। वे भौचक्के होकर देख रहे हैं कि उनकी पार्टी आखिर लुटेरों, ठगों और धूर्त लोगों के इर्द गिर्द क्यों सिमटती जा रही है। स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के जो वंशज कभी पार्टी को अपना परिवार और सांसें समझते थे वह आज उन्हें पहचानने से भी इंकार क्यों कर रही है। दरअसल वे समझने तैयार ही नहीं कि उनकी कांग्रेस ने चोला बदल लिया है। कभी वह चोरी छुपे समाजविरोधी लोगों को प्रश्रय देती थी अब वह खुलेआम सत्ता के दलालों की बाहें थामे घूम रही है। इसकी वजह शायद ये कि वह अपने अंत की तस्वीर देखकर भयाक्रांत है।

बरसों से घरों पर खाट तोड़ रहे जो कार्यकर्ता इस उम्मीद में प्रदेश कार्यालय पहुंचे कि उनके आलाकमान ने नया प्रदेश प्रतिनिधि भेजा है पर उनके हाथ निराशा ही लगी। इंजीनियर दीपक बावरिया से उन्हें उम्मीद थी कि वे पार्टी संगठन का विस्तार करके एक बार फिर बुलंद कांग्रेस खड़ी कर देंगे। जब पार्टी दफ्तर में उन्हें प्रदेश से हकाले गए नेता के बेटे के चंगुल में घिरा देखा तो वे चकित रह गए। शाम होते होते उनके धैर्य का बांध टूट गया और कमलनाथ जिंदाबाद के नारे लगाते हुए उन्होंने बावरिया को भागने पर मजबूर कर दिया। कांग्रेसियों के बीच ये बात फैल चुकी है कि बावरिया को भाजपा से सीटों का समझौता करने भेजा गया है। जबकि अब तक कमलनाथ प्रदेश भर में विजय का जाल बिछा रहे थे। बावरिया के आने से कमलनाथ के अलावा प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, अजय सिंह, मुकेश नायक, सुरेश पचौरी जैसे वरिष्ठ नेता भी हलाकान हैं। उनके समर्थकों को वे कहां एडजस्ट करें ये नहीं समझ आ रहा है। क्योंकि बावरिया तो पहले से बनी बनाई सूची लेकर बैठे हैं। ज्यादातर कांग्रेसियों का कहना है कि आलाकमान को बरसों से कहते रहने के बावजूद प्रदेश में नेतृत्व को लेकर पार्टी ने संशय का माहौल बना रखा है। खुद राहुल गांधी चेहरा देखकर फैसले करते हैं। उन्होंने ही अरुण यादव को प्रदेश में पार्टी की कमान सौंप रखी है जबकि वे अब तक न कार्यकर्ताओं को एकजुट कर पाए हैं और न ही शीर्ष नेताओं का विश्वास पा सके हैं।

इस बीच कांग्रेसियों ने अपनी ही पुरानी सरकार के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया है। उनका कहना है कि जो सरकार बाकायदा श्वेत पत्र निकालकर दुनिया को ये बताती हो कि उसका दिवाला निकल चुका है उस सरकार के नेता को अब तक पार्टी ने क्यों गले में लटका रखा है। गौरतलब है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने जनवरी 2003 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना पर श्वेत पत्र निकाला था। जिसमें बताया गया कि भारत शासन ने 2000 से 2002 तक 1201 सड़कें बनाने की स्वीकृति प्रदान की है। इस दौरान 5853किमी. सड़कें बनाना है। इसके बावजूद तत्कालीन राज्य सरकार उन योजनाओं को साकार नहीं कर सकी क्योंकि उसने हर निविदा में ठेकेदारों से भारी धनराशि वसूलने की अड़ीबाजी की थी। कांग्रेस की सरकार जाने के बाद ठेकेदारों ने उन सभी सड़कों को धड़ाधड़ बना दिया क्योंकि नई सरकार बिजली , सड़क और पानी की सुविधाएं मुहैया कराने के नाम पर ही शासन में भेजी गई थी। जाहिर है कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने प्रदेश हित और पार्टी हित को ताक पर धरकर स्वहित को सर्वोपरि माना था।

इसी तरह जून 2003 में सरकार ने ऊर्जा के हालात पर श्वेत पत्र प्रकाशित किया और कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के कारण हमारा बिजली उत्पादन प्रभावित हुआ है। हमारा वार्षिक घाटा बढ़कर 2100 करोड़ रुपए हो गया है। इसके बावजूद हमने सिंचाई पंपों को अस्थायी कनेक्शन और मुफ्त बिजली दी है। हालांकि सरकार के दावों की पोल गली चौबारों में खुल रही थी। लोग आंदोलन कर रहे थे। मध्यप्रदेश विद्युत मंडल के दफ्तरों को आग के हवाले किया जा रहा था। इस बीच सरकार ने 22 निजी बिजली उत्पादकों से अनुबंध किए। वे सभी अनुबंध फेल हो गए। जब जनता बिजली को लेकर भड़क गई तो सरकार ने कहा कि हमने मुफ्त बिजली देने का कार्यक्रम शुरु किया था इसलिए प्रदेश में बिजली की मांग बढ़ गई। बिजली चोरी भी बढ़ गई इसलिए बिजली की कमी हो गई। इसके बाद सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली इकाईयों पर निवेश शुरु कर दिया। बिरिसिंहपुर, अमरकंटक, मडी़खेड़ा जल विद्युत परियोजना, बाणसागर जल विद्युत परियोजना, पीथमपुर ,इंदिरासागर, महेश्वर जैसी परियोजनाओं का भरोसा भी जनता को दिलाया। इसके बावजूद सरकार की नाकामियों पर भड़की जनता एक भी बात सुनने तैयार नहीं थी।

वास्तव में पीव्हीनरसिंम्हाराव की केन्द्र सरकार में वित्तमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने मुक्त बाजार व्यवस्था की नीति पर चलने की घोषणा तो कर दी थी लेकिन उनकी ही कांग्रेसी सरकारें इस दिशा में चलने को तैयार नहीं थीं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह अपनी पार्टी को इसके लिए तैयार करने में बुरी तरह असफल रहे। उनकी ही पार्टी ने अपनी सरकार को घेरना शुरु कर दिया । इस बीच दिग्विजय सिंह ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अपने समर्थकों को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी के पुराने नेताओं को पीछे धकेलना शुरु कर दिया। उन पर झूठे मुकदमे बनाए गए। उन्हें तरह तरह के लांछन लगाकर बदनाम किया गया। पार्टी की जवाबदारियों से हटाया गया। नतीजतन कांग्रेस पार्टी के भीतर ही विद्रोह फैल गया। आज हाल ये हैं कि जैसे ही लोगों को मालूम पड़ा कि दीपक बावरिया दिग्विजय के इशारे पर काम कर रहे हैं और एक बार फिर वही दमन चक्र शुरु करने की तैयारी कर रहे हैं तो पार्टी के कार्यकर्ता भड़क गए। उन्होंने पार्टी के प्रदेश कार्यालय में ही बावरिया का ढोल बजा दिया।

जबकि भाजपा की नई सरकार ने आते ही बिजली सुधारों पर तेजी के अमल करना शुरु कर दिया। नतीजतन तेरह सालों बाद आज बिजली की सप्लाई 125 फीसदी बढ़ गईहै। 2003 में जो बिजली सप्लाई 2899 मिलियन यूनिट थी वो साल भर के भीतर 30625 मिलियन यूनिट हो गई। आज प्रदेश में 64374 मिलियन यूनिट बिजली सप्लाई हो रही है। प्रदेश बिजली के मामले में आत्मनिर्भर है और वह गाहे बगाहे अपनी अतिरिक्त बिजली अन्य राज्यों को भी बेच लेता है। इसकी वजह ये है कि प्रदेश में बिजली का उत्पादन 2003 की तुलना में 243 फीसदी बढ़ गया है। मांग और आपूर्ति के बीच 129 फीसदी का इजाफा हुआ है। ट्रांसमिशन क्षमता में तेरह सालों में 236 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। अति उच्च दाब लाईनों भी बिछाई गईं और ये लगभग 82 फीसदी बढ़ गईं हैं। ये बिजली सप्लाई सुचारू रहे इसके लिए अति उच्च दाब केन्द्र 162 से बढ़कर 331 हो गए हैं। ट्रांसफार्मरों की उपलब्धता भी बढ़ी है, तेरह सालों में ये क्षमता 174 फीसदी ज्यादा हो गई है। बिजली के क्षेत्र में आर्थिक संकट दूर करने के लिए जो प्रयास किए गए उनसे पिछले पांच सालों में नकद राजस्व बढ़कर 17838 करोड़ रुपए हो गया है। इस तरह एक बीमारू राज्य को काफी प्रयासों के बावजूद विकसित राज्य बनाया गया है। इसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान जनता के अपराधी और असफल नेता को सेवामुक्त करने में हिचक रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये बताई जा रही है कि सत्ता में रहते हुए उसने हाईकमान को मुद्रा सप्लाई में कमी नहीं की थी। भले ही प्रदेश के लोग हलाकान थे लेकिन आलाकमान मध्यप्रदेश के चंदे पर गुलछर्रे उड़ा रहा था।

यही नहीं पंचायती राज का ढिंढोरा पीट रही तत्कालीन दिग्गी सरकार ने प्रदेश को कंगाली के दलदल में धकेल दिया था। प्रदेश की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए फरवरी 2004 में जो श्वेत पत्र निकाला गया उसमें कहा गया कि पूर्ववर्ती सरकार ने जो ऋण लिया उसका उपयोग विकास कार्यों में नहीं किया। बल्कि उसे गैर विकास कार्यों में ही खर्च कर दिया।शुद्ध लोक ऋण 7 हजार करोड़ से बढ़कर 31 हजार करोड़ तक पहुंच गया। हर व्यक्ति पर कर्ज बढ़कर 5183 हजार रुपए हो गया। सरकार ने 1999-2000 में शुद्ध ऋण का मात्र 24 फीसदी ही पूंजीगत विकास में खर्च किया गया। जबकि शेष राशि राजस्व व्यय के नाम पर उड़ा दी।सरकार को अपने कर्ज पर आय का 23 फीसदी ब्याज देना पड़ रहा था। हालात ये हो गए कि वित्तीय संस्थानों ने भी मध्यप्रदेश को कर्ज देने से मना कर दिया। कुशासन और कुप्रबंधन की इससे बडी़ मिसाल शायद ही कहीं देखने मिले। इसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान अपनी राजनीतिक मौत सन्निकट देखकर प्रदेश में कंजर संस्कृति अपनाने पर उतर आया है।

तत्कालीन लोकायुक्त जस्टिस फैजानुद्दीन ने कांग्रेस की सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को अलीबाबा और चालीस चोर की उपमा दी थी। उनके कार्यकाल में लोकायुक्त संगठन ने कड़ी सिफारिशें भी की थीं जिन्हें तत्कालीन सरकार ने कचरे के डिब्बे में डाल दिया था। अब अपने विधायक बेटे को पार्टी पर थोपने के अभियान में उन्होंने नई नवेली बहू को भी शरीक कर लिया है। जाहिर है कि जिस पीढ़ी के युवाओं ने दिग्गी की भ्रष्ट सरकार के कारनामे नहीं देखे हैं वे इस यात्रा से कुछ अमृत निकलने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। इसके बावजूद उन्हें अहसास नहीं कि उनकी ही पार्टी के दिग्गज ये ख्याली पुलाव कभी साकार नहीं होने देंगे।

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