मुझे मेरी बन्डी मिल गईः संत हिरदाराम जी

– सुरेश आवतरामानी –

परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी का 112 वां अवतरण दिवस 21 सितम्बर 2017 को है । इस शुभ अवसर पर अनायास संत जी से जुड़ी एक घटना का स्मरण हो आया है । वर्ष 1999 में आन्ध्र प्रदेश और ओड़ीसा के तटवर्तीय इलाकों में भयानक तूफान और मूसलाधार बारिश हुई थी फलस्वरूप समुद्र ने अपना तट छोड़ दिया था और उसका पानी रिहायशी इलाको में घुस आया था । इस प्रलयंकारी तबाही से बड़ी संख्यां में तटवर्ती इलाको के लोग काल क गाल में समा गये थे । हजारों की संख्या में पशु और पक्षी मर गये थे । चैतरफा विनाशकारी दृश्य फैला हुआ था । केन्द्र और राज्य सरकार अपने स्तर पर तो लोगों की मदद के लिये काम कर रही थीं, लेकिन वे प्रयत्न किंचित अपर्याप्त दिख रहे थे । बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस प्राकृतिक आपदा की स्थिति से लोगों को उबारने के लिये प्रयत्नशील थीं ।

उन दिनों मध्यप्रदेश में डाॅ. भाई महावीर राज्यपाल थे । एक दिन प्रातः महामहिम राज्यपाल ने राजभवन में मुझे बुलाकर परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की तथा कहा कि कुटिया फोन करके संत जी से भेेंट का समय निर्धारित करवाएं । उन दिनों मैं महामहिम राज्यपाल के प्रेस अधिकारी के पद पर सेवारत था । राज्यपाल की आज्ञा के अनुसार मैंने सिद्ध भाऊ जी को फोन पर राज्यपाल की इच्छा से उन्हें अवगत कराया । सिद्ध भाऊ ने संत जी से आज्ञा लेकर अगले ही दिन प्रातः 9 बजे महामहिम राज्यपाल को कुटिया लेकर आने की बात कही । डाॅ. भाई महावीर और उनकी धर्मपत्नि श्रीमति कृष्णा कुमारी तथा उनके परिजन निर्धारित समय पर कुटिया पहुंचे । प्रोटोकाॅल की दृष्टि से कुटिया में राज्यपाल और उनके परिवार के लिये कुर्सियां लगायी गयी थी । सामने तानो के (स्टूल नुमा) एक छब्बे पर परम्परा अनुसार संत जी का आसन लगाया गया था। लेकिन महामहिम राज्यपाल ने उस समय दाहिनी टांग में साइटिका का असह्य दर्द होने के बावजूद भी संत जी के सामने जमीन पर बैठना पसंद किया । राज्यपाल से आग्रह के बाद भी उन्होनें कुर्सी पर बैठने के लिये विनम्रता पूर्वक इन्कार कर दिया । संत जी उस समय एक फटी हुई बंडी पहने हुए थे तथा नीचे एक अंगोछा बांधे हुए थे । महामहिम राज्यपाल के लिये यह एक आश्चर्यजनक प्रसंग था कि इतने बड़े सिद्ध पुरूष के तन पर कपड़े तक फटे हुए हैं । डाॅ. भाई महावीर ने संत जी से आग्रह किया कि वे उन्हें एक नई बंडी सिलवाकर देना चाहते हैं । राज्यपाल से यह सुनने पर संत जी थोड़ा मुस्कराए और कहा कि वे उनकी बंडी स्वीकार करेंगें पर उसके पहले उनकी एक शर्त है । संत हिरदाराम जी ने राज्यपाल से कहा कि ओड़ीसा और आन्ध्रप्रदेश के तटवर्ती इलाकों में प्रलयंकारी बाढ़ से हजारों की संख्या में लोग काल कवलित हो गये हैं । जो दुधमुहें बच्चे बच गये हैं, उनको पीने के लिये दूध तक भी उपलब्ध नहीं है । यूनीसेफ ने मिल्क पाउडर अहमदाबाद हवाई अड्डे पर पहुंचा दिया है लेकिन सामान का परिवहन करने वाला विमान तत्काल उपलब्ध न होने के कारण वह दूध भी भुवनेश्वर नहीं पहुंच पा रहा है । इसी प्रकार विवेकानन्द केन्द्र की दिल्ली शाखा के स्वयं सेवकों ने बड़ी संख्या में तम्बू और अन्य राहत सामग्री दिल्ली स्टेशन तक पहुंचा दी है। लेकिन दिल्ली स्टेशन पर खाली मालगाड़ी का प्रबंध न होने के कारण उस सामग्री का परिवहन भी नहीं हो पा रहा है । संत जी ने डाॅ. भाई महावीर को कहा कि यथासमय यह सामग्री यदि जरूरतमंदों को उपलब्ध नहीं होगी तो उन्हें किसी प्रकार की राहत नहीं मिल सकेगी । संत जी ने राज्यपाल से यह अपेक्षा की कि वे शासन और प्रशासन के शीर्ष स्तर पर अपने अच्छे संबंधों का उपयोग करते हुए अहमदाबाद विमान तल पर माल ढुलाई विमान और दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर एक खाली माल गाड़ी का प्रबंध करवायें ।

संत जी के दर्शन के बाद राज्यपाल, राजभवन वापस लौट आये और उन्होंने अविलम्ब तत्कालीन रेल मंत्री और नागरिक उड्डयन मंत्री से फोन पर बात की । दोपहर में अनकरीब 3 बजे सिद्ध भाऊ जी का गर्वनर साहब को एक फोन मिला, जिसमें सिद्ध भाऊ जी ने डाॅ. भाई महावीर को संत जी का संदेश दिया । भाऊ जी ने राज्यपाल को बताया कि संत जी ने कहा है कि उन्हें राज्यपाल की बन्डी मिल गयी है । वस्तुतः राज्यपाल द्वारा केन्द्रीय मंत्रियों से टेलीफोन पर बात करने के तुरंत बाद अहमदाबाद में एक कारगो विमान तथा दिल्ली स्टेशन पर एक खाली गाड़ी उपलब्ध करा दी गई थी और उनमें राहत सामग्री और मिल्क पाउडर आदि का लदान भी शुरू हो गया था । डाॅ. भाई महावीर को संत जी का यह विस्मयकारी संदेश मिलने पर वे अवाक रह गये । कुछ देर बाद उन्होंने कहा कि करने वाले तो स्वयं संत जी ही थे, इस प्रसंग में व्यर्थ में ही उनका नाम हो रहा है । डाॅ. भाई महावीर ने कहा कि आज के युग मे भी हमारे समाज में ऐसे महापुरूष विद्यमान हैं जिनके बल पर यह संसार चल रहा है ।

संत की सीख

यह बात वर्ष 2002 की है। उन दिनों डाॅ. भाई महावीर मध्यप्रदेश के राज्यपाल थे। वे महीने में कम से कम एक बार परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी के दर्शन के लिए बैरागढ़ स्थित कुटिया में आया करते थे। डाॅ. भाई महावीर का राज्यपाल पद का कार्यकाल लगभग समाप्त होने वाला था। यह बात उन्होंने परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी को बताई। इस पर संत जी ने तत्कालीन राज्यपाल को कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप गवर्नर रहें या न रहें, सेवा और सिमरन तो कहीं भी किया जा सकता है। इस बात पर डाॅ. भाई महावीर ने संत हिरदाराम जी को बताया कि वे राज्यपाल बनने के पहले दिल्ली के डी.ए.वी. स्कूल के प्राचार्य थे और उन्होंने अपना लगभग पूरा जीवन अध्यापन कार्य में बिताया है। इस पर संत हिरदाराम साहिब जी ने उन्हें कहा कि विद्यादान बहुत बड़ा काम है। राज्यपाल पद से निवृत्त के बाद भी आप पुनः विद्यादान के क्षेत्र में सेवा कर सकते हैं।

इस पर डाॅ. भाई महावीर ने परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी को बताया कि उनके स्वर्गीय पिता भाई परमानन्द स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। अंग्रेजों ने उन्हें क्रान्तिकारी गतिविधियों में लिप्त होने के कारण फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन महात्मा गांधी और एनी बीसेन्ट के प्रयासों से बाद में अंग्रेजों ने उनकी सजा फांसी से बदलकर काले पानी में बदल दी थी। अंडमान निकोबार स्थित सेल्युलर जेल में आज भी भाई परमानन्द के कारावास काल के स्मृति अवषेष रखे हुए हैं। डाॅ. भाई महावीर ने संत हिरदाराम साहिब को बताया कि वे गुरू तेग बहादुर के समकालीन भाई मतिदास और भाई जतिदास के तेरहवें वंशज हैं। औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं के सामुहिक धर्मान्तरण के लिए चलाई गई मुहिम में औरंगजेब ने दिल्ली के शीशगंज गुरूद्वारे के पास भाई मतिदास और भाई जतिदास को आरे से चिर वाकर मरवा डाला था।

संत हिरदाराम साहिब जी डाॅ. भाई महावीर के इतने बड़े बलिदानी कुनबे के वंशज होने के संबंध में जानकारी मिलने पर वे एकदम मौन हो गए। परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी को गुरू वाणी में अगाध श्रद्धा थी। दसों गुरूओं की श्रंखला में गुरू तेग बहादुर के समकालीन सहयोगी होने की बात सुनकर संत हिरदाराम साहिब जी अभीभूत हो गए और काफी देर तक आँखें मूंद कर गुरूओं का स्मरण करने लगे। डाॅ. भाई महावीर ने संत हिरदाराम साहिब जी को यह भी बताया कि वे दिल्ली में कड़कड़डूमा क्षेत्र में अपने स्वर्गीय पिता देवता तुल्य भाई परमानन्द की स्मृति में एक विद्यालय खोलना चाहते हैं। सरकार ने उन्हें इस प्रयोजन के लिए लगभग पौने दो एकड़ जमीन भी दे दी है। इस जमीन पर विद्यालय भवन निर्माण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने षिलान्यास भी कर दिया है लेकिन धनाभाव के कारण वे उस विद्यालय भवन का निर्माण नहीं करवा पा रहे हैं। डाॅ. भाई महावीर के मुंह से यह बात सुनते ही संत हिरदाराम साहिब जी ने कहा कि किसी शुभ काम में धन की कमी आड़े नहीं आनी चाहिए। तब डाॅ. भाई महावीर ने उन्हें कहा कि वैसे तो विद्यालय का पूरा प्रोजेक्ट लगभग चार करोड़ रूपए का है, लेकिन उसके प्रथम चरण में कक्षा एक से बारहवीं तक की कक्षाओं का निर्माण करवाने पर लगभग एक करोड़ रूपए खर्च होगा। संत हिरदाराम साहिब जी ने यह सुनते ही श्रद्धेय सिद्ध भाऊ जी की तरफ देखते हुए उन्हें कहा कि वे विदेषों में अप्रवासी भारतीयों को डाॅ. भाई महावीर की पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा समाज और देश के लिए उनके योगदान का उल्लेख करते हुए जानकारी भेजें तथा विद्यालय भवन निर्माण करवाने के लिए अपेक्षित धन का प्रबंध करने के प्रयास करें। संत जी द्वारा इतना भर कह देने के बाद उनके सेवाभावी शिष्य सक्रिय हो गए और बहुत थोड़े दिनों में विद्यालय भवन के प्रथम चरण के लिए अपेक्षित धनराशि का संग्रहण हो गया और बहुत ही जल्दी दिल्ली के कड़कड़डूमा क्षेत्र में यह विद्यालय भवन बनकर तैयार भी हो गया। इस बीच डाॅ. भाई महावीर मध्यप्रदेष के राज्यपाल पद से भी निवृत्त हो गए थे।

कुछ महीनों बाद डाॅ. भाई महावीर पुनः परमहंस संत हिरदाराम साहिब जी के दर्शन के लिए कुटिया पधारे। संत जी ने डाॅ. भाई महावीर से कहा कि वे विद्यार्थियों की प्रातःकालीन प्रार्थना सभा में स्वयं उपस्थित रहा करें तथा उन्हें प्रतिदिन शाला आने के पहले अपने माता-पिता के चरणस्पर्श करके विद्यालय आने की सीख देवें। डाॅ. भाई महावीर ने बाद में ऐसा ही किया। वे प्रतिदिन अपने दिल्ली स्थित निवास न्यू राजेन्द्र नगर से कड़कड़डूमा स्थित स्कूल जाने लगे और प्रार्थना सभा में बालकों को अपने माता-पिता के चरणस्पर्ष करने के बाद स्कूल आने की सीख देने लगे। इस विद्यालय के बालकों ने जब ऐसा करने शुरु किया तो दिल्ली के उस मध्यम वर्गीय परिवारों के इलाके के अभिभावकोें ने अपने बच्चों के इस व्यवहार को महानगरीय संस्कृति और जीवन शैली से विपरीत कुछ बदला हुआ पाया। मध्यम वर्गीय परिवार के ये अभिभावक समझने लगे कि इस विद्यालय में आधुनिक शिक्षा के साथ ही उदात्त भारतीय जीवन मूल्यों की षिक्षा भी दी जा रही है। विद्यार्थियों के इस बदले हुए सकारात्मक आचरण से उनके माता-पिता बहुत प्रभावित होने लगे और बहुत ही जल्दी यह विद्यालय आस-पड़ोस के अन्य क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय हो गया। उसका नतीजा यह निकला कि इस विद्यालय ने एक वर्ष के अन्दर ही अपनी पूर्ण क्षमता दो हजार विद्यार्थियों के प्रवेश की पूरी कर ली ।

परमहंस संत हिरदाराम जी द्वारा अपने जीवनकाल में बैरागढ, भोपाल में शुरु किए गए मिठी गोविन्दराम स्कूल के बालकों को भी प्रतिदिन अपने माता-पिता के चरणस्पर्श करने के बाद विद्यालय आने की सीख दी जाती है। कुछ दिनों के बाद संत हिरदाराम साहिब जी ने डाॅ. भाई महावीर से जानकारी चाही कि क्या उन्हें विद्यालय संचालन के लिए और अधिक धन की आवश्यकता है? इस पर उन्होंने संत जी के सम्मुख हाथ जोड़ लिए और कहा कि आपके द्वारा दी गई सीख पर अमल करने का यह परिणाम निकला है कि अब हमारे स्कूल में प्रवेश के बहुत सारे इच्छुक विद्यार्थियों को वापस लौटाने की नौबत आने लगी है। उन्होंने बताया कि यह स्कूल अपनी क्षमता से भी अधिक भर गया है और अब स्कूल प्रबंधन को धन की कोई कमी नहीं है। स्कूल की भावी योजनाएं वे स्कूल द्वारा ही अर्जित राशि से कार्यान्वित कर सकते हैं। डाॅ. भाई महावीर ने कहा कि संतों की सीख सदा सुखकारी और कल्याणकारी होती है। (आलेख-सुरेश आवतरामानी)

पक्षियों को दाना-पानी

दान करने से धन बढ़ता है परंतु दान भी पात्र व्यक्ति के पास जाए तो उसका लाभ है, अपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान भी निरर्थक है। वनों की कटाई तथा सरोवरों के सूख जाने के कारण पक्षियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। पशु-पक्षी भूख, प्यास और उष्मा के दुष्प्रभाव से मर रहे हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हो रही जीव हत्या के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है। पक्षी अपना पूरा जीवन जी सकें इसके लिए मनुष्य को ही पहल करनी होगी। प्रत्येक परिवार में यदि बच्चे प्रतिदिन घर की छत पर एक सकोरा पानी तथा थोड़ा अन्न रखें तो उनके अंतर्मन से निकलने वाले आषीर्वाद उन बच्चों के जीवन को ही बदलने का सामथ्र्य रखते हैं। जैसे मूल्यहीन वस्तु अनुपयोगी मानी जाती है वैसे मूल्यहीन जीवन का भी कोई उद्देश्य नहीं होता। जो बच्चे बचपन से पक्षियों को दाना-पानी देते हैं उनके बाल हृदय में करूणा के भाव उत्पन्न होते हैं। आज कल प्रायः यह दिखता है कि संवेदनशीलता की कमी के कारण लोग सड़क पर पड़े घायल व्यक्ति की मदद के बजाय मुंह मोड़ कर चले जाते हैं। जिस हृदय में दर्द नहीं है वह किसी आत्मीय जन की पीड़ा हरने में भी कितना काम आएगा।
जीवन जीने का अधिकार मनुष्यों के साथ ही पषु-पक्षियों को भी है। मनुष्य तो अपने इस अधिकार की रक्षा पशु-पक्षियों का जीवन लेकर भी करता है। परन्तु ये मूक जीव अपने जीवन की रक्षा भी नहीं कर पाते। ऐसे में हमारे परिवारों के सुसंस्कृत बच्चे यदि पक्षियों के संरक्षण का बीड़ा उठा लें तो वे न केवल एक प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लेंगे बल्कि अपना लोक-परलोक भी सवार लेंगे। हमारी पुरातन परम्पराओं में यह सिखाया गया है कि ‘‘पर हित सरस धरम नहीं भाई‘‘ अथवा ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः‘‘। इन उदात्त जीवन मूल्यों और संस्कारों से ही न केवल मानव मात्र बल्कि इस ब्रह्माण्ड के जैविक संसार का भी हित निहित है। दान को गुप्त रखने की बात कही गई है। गुप्त दान का प्रभाव मनुष्य के जीवन को सुखमय करने का सामर्थ्य रखता है। पक्षी मूक होते हैं, उनकी क्षुद्धा को तृप्त करने के लिए किया गया दान भी गुप्त ही रहता है। पक्षियों को किया गया दान भी मनुष्य के जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकता है।

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