टकराव की राजनीति का अंत

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के सबसे लंबे मुख्यमंत्रित्व काल में भले ही रोजगार के साधन विकसित न हो पाए हों लेकिन टकराव की राजनीति ने सकारात्मक दिशा जरूर पकड़ ली है। ये भी अपने आप में बड़ा बदलाव माना जा रहा है। बरसों से टांग खिंचाऊ राजनीति के चलते राजनीतिज्ञों के बीच खेमे बाजी बढ़ती रही थी। कांग्रेस की सरकारें तो अलग अलग नेताओं के गुटों के लिए ही जानी जाती थीं। जनता को खंड खंड विभाजित करने की दिशा में काम करने वाली कांग्रेस की यही खंडित सोच अंततः कांग्रेस के पतन का कारण बनी । इसके बाद जब मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें आईं तब भी कुछ बरसों तक यही खंडित सोच राजनीति पर हावी रही। अब जबकि मुख्यमंत्री प्रदेश में नेतृत्व का सबसे लंबा कार्यकाल पूरा करके नया रिकार्ड बनाने जा रहे हैं तब ये टकराव की राजनीति पूरी तरह तिरोहित होती नजर आ रही है। मध्यप्रदेश विधानसभा के पावस सत्र में राजनीति की यही तस्वीर उभरी है। हालांकि तोड़ने की राजनीति करने वालों को ये नई किस्म की राजनीति रास नहीं आ रही है। वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि वो विपक्ष कैसे संभव है जो सरकार की सकारात्मक कार्यप्रणाली का भी विरोध न करे। दरअसल अब तक यही माना जाता रहा है कि विपक्ष यानि सरकार का विरोधी गुट। उसका तो काम ही सरकार का विरोध करना है। जबकि नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने बरसों पुरानी इस परिपाटी को अपने छोटे भाई शिवराज सिंह चौहान की कार्यशैली को समझकर इस टकराव की राह ही छोड़ दी है। ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे की तर्ज पर नजर आने वाला विपक्ष कल ठगा सा रह गया जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि किसानों का कर्ज माफ करने की विपक्ष की मांग वो नहीं मानेंगे। वे किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य देने का वादा तो करते हैं लेकिन उसका कर्ज माफ करके वे किसान को पंगु नहीं बनाएंगे। इस घटिया राजनीति को नकारकर शिवराज सिंह चौहान ने अपनी बुलंद राजनीति का परिचय दिया है। नेता प्रतिपक्ष ने भी इसका बेवजह विरोध नहीं किया। कांग्रेस के दिग्गज उनकी इस शैली से भौंचक्के रह गए। दूसरे दिन उन्होंने अपने राहुल भैया पर दबाव बनाया कि उनकी भूमिका तो सरकार का विरोध करने की है। उन्हें अपना विरोध जरूर दर्ज कराना चाहिए था। जाहिर है पार्टी के दिग्गजों के दबाव के आगे उन्होंने दूसरे दिन सरकार के कर्ज माफी की घोषणा न करने से नाराज होकर सदन का बहिर्गमन कर दिया। हालांकि दूसरे दिन इस तरह के विरोध का कोई औचित्य नहीं था फिर भी कांग्रेस के नेताओं ने अपनी तोड़ने वाली सोच को जारी रखकर अपनी ओछी परंपरा का परिचय दे ही डाला। कांग्रेस के नेताओं के साथ समस्या यही है कि वे समझने तैयार नहीं कि वक्त बदल गया है। नर्मदा का पानी हमेशा बहता रहता है और क्षण भर बाद किसी भी स्थान से पानी की नई लहर गुजर जाती है। कांग्रेस के दिग्गज चाहते तो वक्त की नजाकत समझ सकते थे लेकिन वो समझने तैयार नहीं हैं। उन्होंने जिन घटिया हथकंडों से देश की जनता को हांका है वे उन फंडों को छोड़ना नहीं चाहते। वो सोचते हैं कि उनकी पुरानी कार्यशैली ही उन्हें देश की सत्ता पर लौटा देगी। जो अब कभी संभव नहीं है। टकराव की राजनीति के अंत का ये चमत्कार आखिर शिवराज सिंह चौहान ने किया कैसे। इस पर विचार करें तो बड़ा सरल का फार्मूला सामने आता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके राजनीतिक गुरु सुंदरलाल पटवा ने राजनीति में आगे बढ़ाया था। सुंदरलाल पटवा अर्जुन सिंह के करीबी माने जाते रहे हैं। अर्जुन सिंह ने ठाकुरों की राजनीति के सहारे मध्यप्रदेश में अपना वर्चस्व जमाया था। अपनी राजनीति को जमाए रखने के लिए उन्होंने न केवल अपनी पार्टी के सहयोगियों बल्कि विपक्षी भाजपा के भी दिग्गजों को अपना सहयोगी बनाया था। जब कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें कमजोर करने की कोशिश की तो उन्होंने दो बार विपक्षी सुंदरलाल पटवा को सरकार में आने में मदद की । भाजपा में राघवजी भाई जैसे लोगों ने तब इसी बात को लेकर सुंदरलाल पटवा का विरोध भी किया था। भाजपा हाईकमान से भी उन्होंने इस गठबंधन को अवैध बताते हुए शिकायत भी की थी। इसका परिणाम बरसों बाद राघवजी भाई को भुगतना पड़ा। पटवा जी के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उसी परंपरा को जारी रखा है। जिसमें बड़े भाई के रूप में अजय सिंह राहुल भैया शुरु से सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। ये राजनीतिक समझदारी न केवल सत्ता शीर्ष बल्कि व्यापारिक संबंधों में भी जारी है। कई बड़े औद्योगिक घरानों का साम्राज्य इस दोस्ती की मिसाल के रूप में मौजूद है। ये एक तरह से प्रदेश के लिए बहुत अच्छा है। कारोबारी एकता से विकास की यशोगाथा लिखने का ये माहौल प्रदेश के लिए हितकारी है। कम से कम औद्योगिक स्थिरता से प्रदेश का विकास रथ ठीक दिशा में चल तो रहा है। उधर अजय सिंह अच्छी तरह जानते हैं कि जिस तरह कांग्रेस ने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को फ्री हैंड दे रखा है उसके चलते उनकी मुख्यमंत्री बनने की अभिलाषा पूरी नहीं हो पाएगी। जाहिर है इन हालात को देखते हुए खुद का साम्राज्य मजबूत किया जाए और भविष्य के लिए राजनीतिक ऊर्जा बचाए रखने का इंतजाम किया जाए यही बुद्धिमानी है। इस अनूठी यारी में पार्टीगत प्रतिद्वंदिता को ताक पर रखकर अपने विरोधियों को निपटाने में भी सहयोग और परस्पर विश्वास की युति देखी जा रही है। शिवराज जी को प्रदेश की राजनीति से हटाकर केन्द्र में पहुंचाने का जतन करने वाले नेताओं को एक एक कर निपटाया जा रहा है।राजनीति के जानकार किसानों पर मंदसौर में हुए गोलीकांड के मामले को स्थगन के माध्यम से सदन में उठाए जाने को फिक्सिंग बता रहे हैं। उनका कहना है कि इस स्थगन ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अपनी सरकार का पक्ष जनता के सामने रखने का मौका दिया है। इससे कांग्रेस की भद भी पिटी है। जाहिर है प्रदेश के नेताओं को इस राजनीतिक परिपाटी को अच्छी तरह समझना होगा। वे विकास की इस यात्रा में सहयोगी के रूप में बने रहेंगे तो उनके अच्छे दिन चलते रहेंगे। यदि विरोध करने की राजनीति न छोड़ी तो फिर जयहिंद।

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