भारतीय जनता पार्टी को उसके कैडर के लिए जाना जाता रहा है। कांग्रेस के धराशायी होने की वजह भीउस पार्टी का कैडर ही रहा। जिस पार्टी का कैडर भ्रष्ट नेताओं और सुविधाभोगी अय्याशों से भर जाए उसे विदा करने में जनता जरा भी देरी नहीं करती। कांग्रेस इसका जीता जागता सबूत है। ये जानते बूझते हुए भी पिछले कुछ सालों में मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी ने कैडर के नाम पर केवल चुनाव जीतने और जिताने वाले लोगों को ही तवज्जो दी है। पार्टी कैडर मेंशीर्ष के आसपास इसी तरह के कार्यकर्ताओं और नेताओं का जमघट हो गया है जो कांग्रेसियों के तमाम हथकंडों को अपनाकर चुनावी विजय का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। इसमें पार्टी को सफलता भी मिल रही है। हालिया उपचुनाव में पार्टी ने शहडोल और नेपानगर सीट पर विजय भी हासिल की। इस विजय को मोदी सरकार की नोटबंदी का लिटमस परीक्षण बताकर प्रचारित किया जा रहा है। लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। आठ तारीख को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुराने बड़े नोटों के बंद करने की घोषणा की तबसे भारतीय जनता पार्टी को मानों सांप सूंघ गया है। कांग्रेसियों की बैचेनी की बात करने का तो कोई औचित्य है ही नहीं। भाजपा का प्रदेश नेतृत्व हो या राज्य सरकार दोनों इस मुद्दे पर तभी से चुप्पी साधे हुए हैं। भाजपा के राज्य नेतृत्व ने एक भी बयान अब तक जारी नहीं किया जिसमें कार्यकर्ताओं को नोटबंदी के कारण आ रही परेशानियों से निपटने में जनता के साथ खड़े होने के निर्देश दिए गए हों। जो पार्टी हर चुनाव के दौरान दम भरती हो कि हम बूथ लेवल मैनेजमेंट पर सबसे ज्यादा जोर देते हैं वह पार्टी अपने राष्ट्रीय नेता के क्रांतिकारी फैसले पर आखिर क्यों खामोश खड़ी है। किसका चेहरा देखकर पार्टी ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखने का फैसला लिया। क्या पार्टी का लक्ष्य केवल वोट लेना और सत्ता का आनंद लेना भर है। भाजपा के संवाद केन्द्र से जारी प्रेस नोट में युवा मोर्चा के किसी आयोजन का उल्लेख छोड़ दें जिसमें बैंकों में हेल्प डेस्क अभियान चलाने की बात कही गई हो लेकिन पार्टी के स्तर पर न तो कोई आपातकालीन बैठक बुलाई गई और न ही हालात से निपटने की कोई रणनीति बनाई गई। मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी के संगठन को स्व. कुशाभाऊ ठाकरे जैसे जीवट व्यक्तित्व के कारण पूरे देश में गंभीरता से याद किया जाता रहा है। आज इस पार्टी में ऐसा क्या हो गया कि नोट बंदी जैसे जनहितकारी फैसले पर वह चुप्पी साधे बैठी है। मध्यप्रदेश की शिवराज सिहं चौहान सरकार को समाज के सभी वर्गों के लिए नीतियां बनाने के कारण खासी लोकप्रियता हासिल है। जनता ने उसे तीन तीन बार सत्ता सौंपी और प्रदेश के विकास का मौका दिया लेकिन इसके बावजूद सरकार ने नोटबंदी को सफल बनाने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया। नोटबंदी की घोषणा के अठारह दिन बीत जाने के बाद भी जब अखबारों में जनता की परेशानियों की खबरें छपना बंद नहीं हुईं तो हाईकमान के निर्देश के बाद सरकार ने आनन फानन में कुछेक अखबारों को एक विज्ञापन जारी किया जिसमें वही बातें दुहराई गईं हैं जो भारत सरकार की ओर से जारी विज्ञापनों में कही जाती रहीं हैं। सरकार समर्थक एक बड़े समाचार पत्र ने तो अपने संपादकीय में नोटबंदी को मोदी का व्यक्तिगत फैसला बताकर इसका खुला विरोध भी किया। वास्तव में सरकार में बैठे महत्वपूर्ण लोगों और भ्रष्ट व्यापारियों के बीच इस तरह का गठजोड़ बन गया है कि वो किसी भी नवाचार को स्वीकार करने तैयार नहीं है। सार्वजनिक धन का अपवंचन करने के लिए इस गठजोड़ ने कई फार्मूले अपना लिए हैं। विकास के नारे लगाना इसमें सबसे उल्लेखनीय है। एक सामान्य सा अर्थशास्त्री भी समझ सकता है कि सत्ता से जुड़े शोषकों के गिरोहों ने विकास योजनाओं का जो धन चोर दरवाजे से अपने पास जुटा लिया उसे वापस लाने के लिए ही नोटबंदी की गई है। पर मध्यप्रदेश में तो सरकार फैसले के बाद से ही लकवा ग्रस्त नजर आ रही है।जिस फैसले को जनता का व्यापक समर्थन मिल रहा हो। भाजपा के पारंपरिक विरोधी वोट बैंक ने भी इस कदम को अच्छा फैसला बताया है। इसके बावजूद सरकार ऊहापोह की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रही है।जिस फैसले को जनता हाथों हाथलेकर चल रही है प्रदेश सरकार इस दौरान जनता से साथ हाथ बंटाने खड़ी नहीं हो पा रही है।क्या इसे भारतीय जनता पार्टी के भीतर आपसी प्रतिद्वंदिता की लड़ाई समझा जाए। पार्टी के नेताओं से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या पार्टी का कैडर केवल मलाई खाने के लिए ही संयोजित किया गया है। क्या मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार काला धन बनाने वाले व्यापारियों, अफसरों और राजनेताओं के साथ है। जनता की समस्याओं से उसे कोई वास्ता नहीं।
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