डीएवीपी की नीति में संशोधन क्यों ?

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– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) की विज्ञापन नीति में पहले भारत सरकार की ओर से देश की तीन बड़ी संवाद समितियों को वरीयता दी गई थी, साथ में सभी समाचार पत्र-पत्रिकाओं से कहा गया था कि इन तीन में से किसी एक की सेवाएं लेना अनिवार्य है। जैसे ही यह निर्देश डीएवीपी की वेबसाइट पर आए, देशभर में जैसे तमाम अखबारों ने विरोध करना शुरू कर दिया। यह विरोध बहुत हद तक इस बात के लिए भी था कि क्‍यों समाचार पत्रों के लिए सरकार की इस विज्ञापन एजेंसी ने अंक आधारित नियम निर्धारित किए हैं। इन नियमों के अनुसार प्रसार संख्‍या के लिए एबीसी या आरएनआई प्रमाण पत्र होने पर 25 अंक, समाचार एजेंसी की सेवा पर 15 अंक, भविष्‍य निधि कार्यालय में सभी कर्मचारियों का पंजीयन होने पर 20 अंक, प्रेस कॉन्‍सिल की वार्ष‍िक सदस्‍यता लेने के बाद 10 अंक, स्‍वयं की प्रेस होने पर 10 अंक और समाचार पत्रों के पृष्‍ठों की संख्‍या के आधार पर अधिकतम 20 से लेकर निम्‍नतम 12 अंक तक दिए जाएंगे।

इस नई विज्ञापन नीति के आने के बाद से जैसे ज्‍यादातर अखबारों को जो अब तक स्‍वयं नियमों की अनदेखी करते आ रहे थे, लगा कि सरकार ने उन पर सेंसरशिप लागू कर दी है। इन छोटे-मध्यम श्रेणी के अधिकतम अखबारों के साथ कुछ एजेंसियों को भी पेट में दर्द हुआ, जिन्‍हें अपने लिए इस नीति में लाभ नहीं दिख रहा था। बाकायदा विरोध-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया । एक क्षेत्रीय समाचार एजेंसी ने तो इसमें सभी हदें पार कर दीं । वह अपने खर्चे पर छोटे-मंझोले अखबार मालिकों को दिल्‍ली ले गई और अपनी ओर से कई दिनों तक विरोध प्रदर्शन करवाया।

यहां प्रश्‍न यह है कि सरकार को इस नीति को लाने की जरूरत क्‍यों आन पड़ी ? क्‍या सरकार को यह नहीं पता था कि अखबारों से उसकी सीधेतौर पर ठन जाएगी । यह तय था कि जिस मोदी सरकार के बारे में कल तक ये अखबार गुणगान करने में पीछे नहीं थे, देश में इस नई विज्ञापन नीति के लागू होते ही समाचार पत्र सीधे सरकार के विरोध में खड़े हो सकते हैं। वास्‍तव में यदि इन सभी का उत्‍तर कुछ होगा तो वह हां में ही होगा। क्‍योंकि सरकार, सरकार होती है, उसके संसाधन अपार हैं और उसे ज्ञान देने वालों की भी कोई कमी नहीं होती, इसके बाद यह जानकर कि आने वाले दिनों में नई विज्ञापन नीति के लागू होते ही सबसे पहले सरकार का विरोध होगा, यह नीति डीएवीपी ने लागू की।

देखा जाए तो जिन लोगों को ये नहीं समझ आ रहा है कि क्‍यों सरकार ने आ बैल मुझे मार वाली कहावत को अपनी इस नीति के कारण चरितार्थ किया, तो उन्‍हें ये समझ लेना चाहिए कि सरकार इस रास्‍ते पर चलकर देश के उन तमाम कर्मचारियों का भला करना चाहती थी, जो किसी न किसी अखबार के दफ्तर में वर्षों से काम तो कर रहे हैं लेकिन उनका पीएफ नहीं कटता। जीवन के उत्‍तरार्ध में जीवन यापन के लिए कहीं कोई भविष्‍य नि‍धि सुरक्षित नहीं है। वस्‍तुत: सरकार इस नियम के माध्‍यम से देश के ऐसे कई लाख कर्मचारियों का भविष्‍य सुरक्षित करना चाह रही थी। इसी प्रकार समाचार एजेंसियों की अनिवार्यता को लेकर कहा जा सकता है। अक्‍सर देखा गया है कि वेब मीडिया के आ जाने के बाद से कई अखबार अपने समाचार पत्र में खबरों की पूर्ति इनसे सीधे कर लेते हैं। इन खबरों के निर्माण में जो श्रम, समय और धन उस संस्‍था का लगा है, उसका पारिश्रमिक चुकाए बगैर समाचारों का उपयोग जैसे इन दिनों रिवाज सा बन गया था। एक तरफ दूसरे के कंटेंट को बिना उसकी अनुमति के उपयोग करना अपराध माना जाता है तो दूसरी ओर मीडिया जगत में ऐसा होना आम बात हो गई थी।

वास्‍तव में एजेंसी के माध्‍यम से सरकार की कोशिश यही थी कि सभी अखबार नियमानुसार समाचार प्राप्‍त करें और उन खबरों के एवज में कुछ न कुछ भुगतान करें, जैसा कि दुनिया के तमाम देशों में होता है । लेकिन इसका देशभर के कई अखबारों ने विरोध किया । आश्‍चर्य की बात उसमें यह है कि यह विरोध एक समाचार एजेंसी पर आकर टिक गया था। यहां कोई भी पीटीआई या यूएनआई का विरोध नहीं कर रहा था, विरोध करने वालों के पेट में दर्द था तो वह हिन्‍दुस्‍थान समाचार को लेकर था। इस एजेंसी को लेकर यही बातें आम थी कि यह एक विशेष विचारधारा की एजेंसी है। यहां समाचार नहीं विचारधारा मिलेगी और इन्‍हीं के लोगों की सरकार है इसलिए उन्‍होंने इस एजेंसी को डीएवीपी में मान्‍यता दी है। यानि की पैसा भी देना पड़ेगा और समाचार भी नहीं मिलेंगे, लेकिन क्‍या यह पूरा सत्‍य था ? जो हिन्‍दुस्‍थान समाचार की कार्यप्रणाली से पहले से परिचित रहे हैं वे जानते हैं कि इस संवाद समिति का सत्‍य क्‍या है। एक क्षेत्रीय न्‍यूज एजेंसी से जुड़े समाचार पत्र एवं अन्‍य लोग जैसा कि कई लोगों से चर्चा के दौरान पता चला कि नाम लेकर हिन्‍दुस्‍थान समाचार का खुला विरोध कर रहे थे। कम से कम उन्‍हें पहले इसके इतिहास की जानकारी कर लेनी चाहिए थी ।

हिन्‍दुस्‍थान समाचार 1948 से देश में कार्यरत है। पीटीआई को जब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने विधिवत शुरू किया था, उसके पहले ही यह संवाद समिति मुंबई से अपना कार्य अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में आरंभ कर चुकी थी। यह आज भी देश में सबसे ज्‍यादा भारतीय भाषाओं में समाचार देने वाली बहुभाषी न्‍यूज एजेंसी है। इस एजेंसी के खाते में कई उपलब्‍धियां दर्ज हैं। यह हिन्‍दी और भारतीय भाषाओं में सबसे पहले दूरमुद्रक टेलीप्रिंटर निर्माण कराने वाली संवाद समिति है। चीन का आक्रमण हो या अन्‍य विदेशी घुसपैठ से लेकर देश की ग्रामीण जन से जुड़ी बातें यदि किसी एजेंसी ने सबसे ज्‍यादा और पहले देश के आमजन से जुड़ी सूचनाएं सार्वजनिक की हैं तो यही वह एजेंसी है। आज भी इस संवाद समिति का अपना संवाददाताओं का एक अखिल भारतीय और व्‍यापक नेटवर्क है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी के समय तक हिंदुस्‍थान समाचार को केंद्र व राज्‍य सरकारों द्वारा लगातार न्‍यूज एजेंसी के रूप मान्‍यता दी जाती रही है। यहां तक कि कई कांग्रेसी एवं अन्‍य विचारधाराओं वाले नेता समय-समय पर इससे जुड़े रहे। मध्‍यप्रदेश कांग्रेस के अध्‍यक्ष अरुण यादव के पिता स्‍व. सुभाष यादव भी कभी हिंदुस्‍थान समाचार बहुभाषी सहकारी संवाद समिति के अध्‍यक्ष रह चुके हैं। संवाददाताओं के स्‍तर पर भी देखें तो किसी पत्रकार की अपनी विचारधारा कुछ भी रही हो, यदि उसमें पत्रकारिता के गुण हैं और वह मीडिया के स्‍वधर्म को जानता है, तो बिना यह जाने कि वह किस विचारधारा से संबद्ध है, हिंदुस्‍थान समाचार ने उसे अपने यहां बतौर संवाददाता से लेकर केंद्र प्रमुख एवं अन्‍य महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारियां सौंपने में संकोच या भेदभाव नहीं किया।

डीएवीपी ने हिन्‍दुस्‍थान समाचार को केवल इसलिए ही अपनी सूची में नहीं डाल लिया होगा कि इसकी विशेष विचारधारा से नजदीकियां होने की चर्चाएं आम हैं। सभी को यह समझना ही चाहिए कि समाचार में कैसा विचार ? क्‍यों कि एक समाचार तो समाचार ही होता है, और देश, दुनिया के समाचार देना प्रत्‍येक संवाद समिति का रोजमर्रा का कार्य है। वास्‍तव में विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय ने पीटीआई, यूएनआई के साथ हिन्‍दुस्‍थान समाचार को इसलिए अपनी सूची में लिया क्‍योंकि यह एजेंसी प्रिंट के लिए दी जाने वाली समाचार सामग्री में सबसे ज्‍यादा क्षेत्रीय खबरों को नियमित प्रसारित करती है और वह भी कई भाषाओं में । यह भी सरकार के समय-समय पर निर्धारित किए गए नियमों का पालन करती है, मजीठिया वेतन आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार अपने कर्मचारियों को वेतन देती है और नियमित कर्मचारियों का पीएफ काटने से लेकर अन्‍य निर्धारित मापदंडों को पूरा करती है।

ऐसे में क्‍या उन तमाम समाचार एजेंसियों को अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहिए जो अपने कर्मचारियों के हित में न तो किसी वेज बोर्ड की अनुशंसाओं को लागू करती हैं और न ही सभी को कर्मचारी भविष्‍य नि‍धि का लाभ देती हैं।

देखा जाए तो विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) को आज अखबारों की तरह ही यह तय कर देना चाहिए कि न्‍यूज एजेंसी के लिए हमारे यहां सूची में पंजीकृत होने के लिए क्‍या नियम होने चाहिए, जिनकी कि पूर्ति की जाना अपरिहार्य रहे। डीएवीपी ने अभी हाल ही में इस मामले को लेकर ‘ मुद्रित माध्‍यमों के लिए भारत शासन की विज्ञापन नीति-2016 में संशोधन’ किया है, उसमें उसने लिखा है कि समाचार पत्र पीआईबी एवं प्रेस कॉन्‍सिल ऑफ इंडिया से मान्‍यता प्राप्‍त किसी भी न्‍यूज एजेंसी के ग्राहक बन सकते हैं। यहां सीधा प्रश्‍न विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) से आज क्‍यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपने यह जो नया निर्देश निकाला है, विरोध इसका नहीं, लेकिन क्‍या उन्‍होंने उन तमाम संवाद एजेंसियों का निरीक्षण करा लिया है जो अब इस निर्देश के नाम पर अखबारों को अपनी सदस्‍यता देंगे। क्‍या यह तमाम एजेंसियां समय-समय पर पत्रकारों के हित में बनाए गए भारत सरकार नियमों और आयोगों के निर्देशों का पालन कर रही हैं। इन्‍होंने अपने यहां क्‍या मजीठिया बेज बोर्ड के नियमों का अक्षरक्ष: पालन किया है। यदि पीटीआई और यूएनआई के साथ हिन्‍दुस्‍थान समाचार केंद्र सरकार के सभी नियमों का पालन करती है, तो क्‍यों नहीं अन्‍य संवाद समितियों को भी उन नियमों को स्‍वीकार करना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं कर रहीं तो उन्‍हें किस आधार पर विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) अपनी सूची में शामिल करने के लिए तैयार हो गया ?

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