स्वाभिमान रखो तो सुख बरसेगा – आचार्य विद्यासागर जी

achrya shree1 भोपाल (पीआईसीएमपीडॉटकॉम)। अहिंसा के मार्ग पर चलकर जीवन संवारने के गुर सिखाने वाले राष्ट्रसंत आचार्य विद्यासागर जी महाराज का कहना है कि देश यदि स्वाभिमान जगाकर अपने इतिहास को ही समझ ले तो वह एक बार फिर दुनिया का सबसे सुखी और समृद्धिशाली देश बन सकता है। हिंदुस्तान जैसे विशाल लोकतंत्र में हमें पक्ष और विपक्ष छोड़कर राष्ट्रीय पक्ष मजबूत करना होगा। मध्यप्रदेश की विधानसभा में आज आयोजित धर्मसभा में उन्होंने राजनेताओं को समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के कल्याण की चिंता करने का उपदेश दिया। इस अनूठे आयोजन में विधानसभा के अध्यक्ष डाक्टर सीतासरन शर्मा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विधानसभा के उपाध्यक्ष राजेन्द्र कुमार सिंह,प्रतिपक्ष के उपनेता बाला बच्चन ने श्रीफल भेंटकर आचार्यश्री का अभिनंदन किया और आशीर्वाद प्राप्त किया।

विधानसभा अध्यक्ष डाक्टर सीतासरन शर्मा ने स्वागत भाषण में धर्मग्रंथों से उदधृत प्राचीन श्लोकों का उदाहरण देते हुए कहा कि जब कोई जितेन्द्रिय साधु हमारे आंगन में आ जाता है तो सारा अमंगल दूर हो जाता है और सुमंगल फैल जाता है। हम आचार्यश्री के आगमन से बहुत प्रसन्न हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके आशीर्वाद से हम जनता की सेवा का अपना लक्ष्य कारगर तरीके से प्राप्त कर लेंगे।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम सबका सौभाग्य है कि आचार्य श्री विधानसभा को धन्य करने पधारे हैं। ये खुशी की बात है कि आचार्यश्री अपनी कैबिनेट( संत स समूह) के साथ विधानसभा परिसर में पधारे हैं। उन्होंने कहा कि केवल नाम के आगे जैन लगा लेने से कोई जैन नहीं हो जाता। अपनी इंद्रियों पर विजय पा लेने वाला जितेन्द्रिय ही सच्चे अर्थों में जैन होता है। मैं तो जैन बनने की कोशिश कर रहा हूं और हम सबको जैन बनने की कोशिशें करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि हमारे प्रदेश की जनता सुखी और समृद्धिशाली हो। उन्होंने आचार्यश्री से निवेदन किया कि वे हमें इस मार्ग पर सफल होने का गूढ़ अर्थ समझाएं।

आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि हम एक हाथ या पैर न होने की स्थिति में भी जरूरी कामकाज निपटा लेते हैं पर यदि किसी पक्षी का एक पंख टूट जाए तो वो उड़ नहीं सकता।लोकतंत्र के आकाश में इसी तरह पक्ष और विपक्ष दोनों जरूरी होते हैं। चुनाव के दौरान हम अपनी अपनी विचारधारा को अच्छा बताते हैं पर चुनाव के बाद तो हम केवल राष्ट्र पक्ष के समर्थक हो जाते हैं। यही लोकतंत्र की महानता है। उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति अहिंसा की है। हर व्यक्ति यहां स्वतंत्र है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वहां समय समय पर लोगों को अपने अधीन रखने के उदाहरण सामने आते रहते हैं। ये अज्ञान है। भवनों और वैभव से कोई देश महान नहीं बनता इसके लिए संस्कृति की उत्कृष्टता जरूरी होती है। भारत इस मामले में पहले से ही बहुत समृद्ध है। हमारा अतीत बहुत समृद्धिशाली है। हमने इतिहास भुला दिया है इसलिए आज हम अपनी शक्ति को नहीं पहचान पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि विधान भवनों में आजादी के बाद से कई पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जा चुकी हैं। इन योजनाओं में हम जिस धन का प्रावधान करते हैं उसका यदि सदुपयोग किया जाएगा तो परमार्थ के काम आसानी से किए जा सकते हैं।

हबीबगंज जैन मंदिर से विधानसभा परिसर की ओर आते हुए मार्ग में पड़े शहीद स्मारक को देखकर आचार्यश्री ने शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा कि ये वे लोग हैं जिन्होंने अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान तक दे दिया। यदि हम अपने बालकों के मन में संस्कृति की रक्षा के संस्कार डाल दें तो समाज की कई समस्याएं आसानी से सुलझाई जा सकती हैं।

आचार्यश्री ने कहा कि बीज के अंकुरण के साथ ही वृक्ष के निर्माण की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। किसान आषाढ़ में खेत की तैयारी के बाद बीज बोता है तो सावन की घटाएं उस बीज को आसानी से अंकुरित कर देती हैं। इसके साथ ही वृक्ष की यात्रा दो दिशाओं में शुरु हो जाती है। हम वृक्ष के नीचे की यात्रा पर आमतौर पर गौर नहीं करते। यदि वृक्ष की जड़ कमजोर हो जाए तो वह गिर जाएगा। उन्होंने कहा कि हम पिछले सत्तर सालों की विकासयात्रा को नहीं भुला सकते।

उन्होंने कहा कि वृक्ष में शाखाएं, उपशाखाएं, पत्ते , फूल और फल सभी इसलिए आते हैं क्योंकि उन तक खाद पानी की आपूर्ति जारी रहती है। जड़ें यदि खाद पानी को अपने पास संग्रहित करके रख लें तो पेड़ नहीं बढ़ सकता। जड़ें पाताल में जाकर राशन पानी की तलाश करती हैं वहीं पत्तियां सूर्य के प्रकाश में भोजन तैयार करती हैं। ये सभी राशन समान रूप से पेड़ के सभी अंगों उपांगों तक वितरित होता रहता है। उन्होंने कहा इसी तरह समाज में हो रहे उत्पादन का लाभ भी समाज के सभी तबकों तक पहुंचना जरूरी है। यदि लोग इसे संग्रह करके रख लेंगे तो विकास की प्रक्रिया रुक जाएगी। उन्होंने कहा कि परिग्रह का भाव रखकर संग्रह कर लेना मूर्छा है। जैन धर्म जिन पांच पापों से बचने की सलाह देता है उसमें एक परिग्रह करना भी शामिल है।

उन्होंने देश के प्रख्यात उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला के अपने बेटे के नाम लिखे पत्र का उल्लेख करते हुए बताया कि उन्होंने अपने बेटे को शिक्षा दी थी कि हम जो धन कमाते हैं वह वास्तव में समाज का है। हम केवल उसके ट्रस्टी हैं। ये धन उन लोगों को नहीं दिया जा सकता जो धन का अपव्यय करते हैं। ये धन समाज के जरूरतमंदों और उसे बढ़ाकर समाज के लिए संग्रह करने वालों को ही दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि बिड़लाजी के इस प्रेरणास्पद पत्र को सभी को पढ़ना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो लोग जागरूक हैं वे आज भी समाज के कल्याण के लिए अपना धन दान करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि पानी भरते देव हैं, वैभव जिनका दास, मृग मृगेन्द्र मिल बैठते दया जहां का भाव। यानि जिस समाज में दया भाव रहता है वहां देव और वैभव सभी एक साथ उपस्थित रहते हैं। उन्होंने कहा कि लक्ष्मी चंचल होती है। इसका संग्रह करना राजा हो या रंक किसी के लिए उचित नहीं है। भारत में ऐसे राजा भी हुए हैं जो राजकोष को हाथ भी नहीं लगाते थे।

उन्होंने कहा कि यदि हम समाज के समृद्ध बनाना चाहते हैं तो हमें दूसरे देशों की ओर देखने की कोई जरूरत नहीं। चीन तो हमसे ढाई साल बाद स्वाधीन हुआ था। तब तत्कालीन नेतृत्व ने कहा कि हम चीनी भाषा को कामकाज की भाषा बनाएंगे। दुनिया से संवाद करने में हमें भले ही थोड़ी तकलीफ हो, हम सारा ज्ञान विज्ञान अपनी ही भाषा में अपनाएंगे। उसका नतीजा है कि आज चीन बुलंदियों की ओर बढ़ता जा रहा है। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विज्ञान, चिकित्सा और प्रबंधन जैसे विषयों को हिंदी में पढ़ाने का संकल्प लिया है। इसके लिए अटलजी के नाम पर विश्वविद्यालय भी खोला गया है। उन्होंने कहा कि आज हमारे विज्ञान के छात्र अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं, पर उनका भाषा पर नियंत्रण नहीं रहता है। समाज को उसका लाभ भी नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि आयुर्वेद के ग्रंथ संस्कृतनिष्ठ हैं इसलिए उनका अनुवाद हिंदी में किया जाना चाहिए। कृषि और विधि जैसे विषयों को हिंदी में पढ़ाने की दिशा में भी बहुत काम हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में भी कामकाज हिंदी में हो तो हम बहुत तेजी से न्यायपथ पर अग्रसर हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि विकास की दिशा में भाषा एक महान शस्त्र है।

उन्होंने कहा कि मैं अंग्रेजी का विरोधी नहीं हूं। उसे भाषा के रूप में जरूर पढ़ा जाना चाहिए, पर हमारी विचार की भाषा तो हिंदी ही हो सकती है। उन्होंने कहा कि मैं अपनी राय आप पर नहीं थोप सकता पर मेरा मानना है कि यदि अंग्रेजी का ये मायाजाल उतार फेंका जाए तो हम अपने खोए अतीत को आज फिर संवार सकते हैं। उन्होंने कहा कि अठारहवीं सदी का हमारा इतिहास धन वैभव की कथाओं से पटा पड़ा है। कई लेखकों ने लिखा है कि हमारे देश में एक एकड़ में 56 बोरा तक धान का उत्पादन होता था जबकि आधुनिक कृषि के दौर में उत्पादन का औसत रिकार्ड केवल 36 बोरा है। हमारे पाठ्यक्रमों से इस इतिहास को भुला दिया गया है। हम नहीं जानते कि हम किस गौरवशाली संस्कृति की संतान हैं। यदि हमने अपने यहां मौलिक अनुसंधान को बढ़ावा दिया होता तो हमें आज विकसित देशों के पीछे नहीं भागना पड़ता।

प्रतिभा पलायन को चिंताजनक बताते हुए उन्होंने कहा कि आज भारत भूमि की संतान अनुसंधान के लिए विदेशों में भटकती फिरती है। सफलता के बाद वह उन्हीं देशों में बस जाती है। जबकि उस अनुसंधान की कीमत हमें जीवन भर पेटेंट शुल्क के रूप में चुकानी पड़ती है। उन्होंने कहा कि संविधान के इस विधान भवन में बैठने वाले लोग यदि अपने पंखों को गति देंगे तो भारत भूमि समृद्धि के उस मुकाम पर पहुंच जाएगी कि दूर देश के लोग भी भारत को देखकर धन्य मानेंगे। कम से कम हम तो खुद को गौरवान्वित महसूस कर ही पाएंगे। उन्होंने कहा कि भारत में प्रजा को राजा बनने का तंत्र मिला हुआ है। यदि हम जीवनोपयोगी शिक्षा देंगे तो समाज तेजी से बदलेगा। उन्होंने कहा कि आज की पराश्रित शिक्षा से हमारी नई पीढ़ी में मानसिक , शारीरिक और आर्थिक रुग्णता बढ़ती जा रही है। उन्होंने कहा कि चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिकता का बढ़ना चिंताजनक है। इस स्थिति से भारत को वापस लौटाना बहुत कठिन है। इसके बावजूद हमें भारत के प्रतिभाशाली लोगों पर पूरा विश्वास है कि वे इन परिस्थितियों को जरूर बदल डालेंगे। हमारे पूर्वजों ने आजादी दिलाकर हमें शांति के साथ अपना गौरवशाली इतिहास दुहराने का अवसर प्रदान किया है। हमें उनके इस ऋण को अवश्य चुकाना होगा।

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